प्रकृति हमेशा एक मार्गदर्शक के रूप में हमें प्रेरित व उत्साहित करती रहती है। हर पेड़, पौधे, फूल, पत्ती का एक मौन संदेश हुआ करता है और वह है कि स्वयं को निरंतर गतिमान और संतुलित रखने के लिए धैर्य चाहिए। पेड़ों पर मंजरी या बौर आने के तुरंत बाद ही तो फल नहीं आ जाता। हौले-हौले ही यह प्रक्रिया सम्पन्न होती है। माटी, हवा और पानी से जिस तरह एक पौधा धीरज रखकर खुद को पुष्पित और पल्लवित करता है, हमें भी ऐसा ही जीवन दर्शन अपनाना चाहिए। महर्षि अरविंद अपने पास आने वाले जिज्ञासु को यह मंत्र देते थे कि मनुष्य अपने सारे जीवन का वास्तुकार स्वयं ही है।
हम अपनी रुचि और सोच-विचार के हिसाब से दिनचर्या तय करते हैं। अपने तौर तरीके से दिन बिताते हैं। सब सामान्य रहता है, तो हम खुश रहते हैं। लेकिन इस दिनचर्या में कुछ जरा-सा भी कुछ अनचाहा हुआ नहीं कि हम सिर पीटने लगते है। हमारा धैर्य डोल जाता है। हमारी पसंद से बने हुए जीवन की हलचल और हिचकोले हमें विचलित कर देते हैं। हम गलती से भी आत्म अवलोकन नहीं करते।
हम अपनी भूमिका न देखकर किसी और पर दोष मढ़ देते हैं। ऐसा प्रदर्शित करते हैं कि इस हालत के लिए उनके अलावा सब ही जिम्मेदार हैं। आरोप लगाने और खुद साफ बच जाने के इस पल में हम चतुराई से यह सच छिपा जाते हैं कि कर्म का नियम कुछ और ही है। कर्म का सिद्धांत यह साफ कहता है कि हमारे हर दुख कष्ट आदि के लिए हम ही जिम्मेदार हैं, कोई दूसरा नहीं।
आज हम जो भी है, जैसा भी अनुभव कर रहे हैं, यह हमारे अतीत के कर्म का परिणाम ही है। जब भी बाधा, संकट अथवा दुख का भार किसी पर पड़ता है तो उसे समस्या को समझना चाहिए। किसी और को अपशब्द न कहकर समस्या से निपटने में पूरी ताकत लगा देनी चाहिए। अगर हम अपना मूल्यांकन करना जानते हैं या ऐसा चाहते भी है, तब कोई न कोई मार्ग खुल ही जाता है।
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