तीन कृषि कानूनों की वापसी के बाद भी भारतीय कृषि में सुधारवादी कदम

नई दिल्‍ली । भारतीय खेती-किसानी को लेकर जब कभी ऐतिहासिक दस्तावेज लिखा जाएगा तो उस समय पता नहीं इतिहासकार कृषि सुधार कानूनों के लाने और उनके वापसी के घटनाक्रम को कैसे देखेंगे, लेकिन आज के तमाम कृषि विशेषज्ञ इस बात पर एकमत हैं कि भारतीय कृषि एक ऐसे मुकाम से पिछड़ गई जब उसके वर्गीकरण की सिर्फ दो ही श्रेणियां बनतीं। पहली, तीन कृषि सुधार कानून आने से पहले की भारतीय कृषि और दूसरी उसके लागू होने के बाद की।

अफसोस, कुछ लोगों की हठधर्मिता ने देश के 12 करोड़ किसान परिवारों के सपने को धूल-धूसरित कर दिया। अगर देश के किसान ने अपनी बेहतरी का सपना देखा है, और नीति-नियंताओं ने उसे यह सपना दिखाया है तो उसे पूरा करने के लिए क्या किसी कानून की जरूरत होनी चाहिए। कानून तो बनाए जाते हैं गलत प्रवृत्तियों पर रोक के लिए। सोचिए, हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में अच्छे और सुधारवादी कदमों के लिए किसी कानून की कितनी दरकार होती है।

विशेषज्ञों के अनुसार भारतीय खेती की सबसे बड़ी खामी असमान जोत है। लिहाजा कोई एक मंत्र सार्वभौमिक रूप से सभी किसानों पर लागू नहीं हो सकता। संसाधन, तकनीक, फसल विविधता, कृषि में जुड़े अत्यधिक लोग आदि खामियों को चरणबद्ध तरीके से दूर करना होगा, ताकि हमारा अन्नदाता खुशहाल रहे और खेती को एक पेशे के रूप में अपनाने पर सम्मानित महसूस करे। प्रयास शुरू हो चुके हैं। अन्न उत्पादन में आत्मनिर्भर बन चुके देश को अब रणनीति बदलनी होगी। खेती की बेहतरी के साथ पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों के साथ पोषण की चिंता भी करनी होगी। फसल विविधता पर ध्यान देना होगा।

हाल ही में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी देश में प्राकृतिक खेती को जन आंदोलन बनाए जाने की जरूरत बताई। दुनिया का बाजार ऐसे भारतीय प्राकृतिक उत्पादों का इंतजार कर रहा है। प्राकतिक खेती सहित भारतीय कृषि को उबारने वाले ऐसे तमाम रास्ते हैं जो खेती को फिर से सम्मानजनक पेशा बनाने में प्रभावी साबित हो सकते हैं। ऐसे में तीन कृषि कानूनों की वापसी के बाद भी भारतीय कृषि में सुधारवादी कदमों की पड़ताल आज बड़ा मुद्दा है।

बड़ी समस्याएं: भारत कृषि प्रधान देश है। यहां आज भी करीब आधी आबादी कृषि से जुड़ी आजीविका पर ही निर्भर है। नेटवर्क आफ रूरल एंड एग्रेरियन स्टडीज (एनआरएएस) की 2020 में आई रिपोर्ट में देश में कृषि और किसानों की तस्वीर सामने आई है। इससे कृषि क्षेत्र की मौजूदा समस्याओं को समझना भी संभव है। स्वतंत्रता के बाद से कृषि विकास के लिए अनेक कार्य हुए हैं, लेकिन अब भी कई समस्याएं हैं, जिनका हल आवश्यक है।

कम होती गई भूमि की उपलब्धता: जनसंख्या बढ़ने का सीधा प्रभाव यह हुआ कि देश में प्रति व्यक्ति कृषि योग्य भूमि की उपलब्धता कम होती गई। 2019 में ग्रामीण विकास मंत्रालय की ओर से जारी एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में प्रति व्यक्ति कृषि योग्य भूमि की उपलब्धता मात्र 0.12 हेक्टेयर है। वैश्विक स्तर पर यह औसत 0.29 हेक्टेयर है। स्पष्ट है कि भारत में भूमि उपलब्धता आधे से भी कम है।

निर्भर हिस्सा घटा, संख्या बढ़ी: प्रतिशत के आधार पर देखा जाए तो कृषि पर निर्भर जनसंख्या कम हुई है। 1951 में 70 प्रतिशत से ज्यादा लोगों के लिए कृषि ही  आजीविका थी। 2011 में यह संख्या 48 प्रतिशत पर आ गई। हालांकि जनसंख्या बहुत तेजी से बढ़ने के कारण कृषि पर आजीविका के लिए निर्भर लोगों की संख्या बहुत बढ़ी है।

जोत का आकार भी घटता गया: कृषि जनगणना 2015-16 के अनुसार, औसत जोत का आकार 1.08 हेक्टेयर हो गया था। 1970-71 में औसत जोत 2.28 हेक्टेयर थी। जोत का आकार घटने से कृषि की लागत बढ़ती है और कमाई घटती जाती है। यह कृषि क्षेत्र की सबसे बड़ी समस्याओं में से है।

असमान वितरण बड़ी समस्या: छोटी जोत के साथ ही भूमि का असमान वितरण भी देश की बड़ी समस्या है। यहां करीब पांच प्रतिशत किसानों के पास 30 प्रतिशत से ज्यादा कृषि भूमि है। मात्र एक प्रतिशत किसान ही बड़े किसानों की परिभाषा में आते हैं।