बीजेपी की लगातार जीत के पीछे जाति-समूह या कुछ और…

निश्चित तौर पर उत्तर प्रदेश में क्या पूरे देश में बीजेपी (BJP) को वोट करने वाला कोई निश्चित जाति समूह नहीं है. मोटे तौर पर अगड़ी जातियों को बीजेपी का वोट माना ज़रूर जाता है, पर उसमें भी कांग्रेस (Congress) तथा वामपंथी दलों (Left Parties) की साझेदारी है. एक तरह से बीजेपी को वोट करने वाला समुदाय अल्प संख्या में है. लेकिन इसके बावजूद केंद्र में और कई राज्यों में वह लगातार दूसरे कार्यकाल का आनंद उठा रही है. यह सवाल उठाना लाज़िमी है कि बीजेपी की इस सफलता का राज क्या है?

इसे सिर्फ़ यह कह कर नहीं टाला जा सकता कि बीजेपी सांप्रदायिक भावनाओं को उकेरती है या वह ईवीएम (EVM) में गड़बड़ियां करती है अथवा बीजेपी के मुख्य नेता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi) को टक्कर देने वाला कोई नेता विपक्ष के पास नहीं है. यदि ऐसा होता तो अरविंद केजरीवाल, ममता बनर्जी, पिनाराई विजयन और स्टालिन सत्ता तक न आ पाते.

हिंदुओं में भय

दरअसल इसके कारण कुछ और हैं, जिनकी अनदेखी विपक्ष करता आया है और आगे भी करेगा. यह है, हिंदू और मुस्लिम को लगातार पोलराइज़ (Polarize) होना तथा हिंदुओं का भय कि देश में उनकी आबादी निरंतर घट रही है. दूसरी तरफ़ वे यह जान कर और आतंकित हो जाते हैं कि मुसलमानों की जनसंख्या बढ़ रही है. इसे सिर्फ़ बीजेपी का दुष्प्रचार कह कर ख़ारिज नहीं कर सकते. इस आशंका के निवारण के उपाय विरोधी दलों को भी सोचने होंगे. बीजेपी ने पुख़्ता प्रमाणों और दलीलों के साथ ये आंकड़े पेश किए हैं और वह भी पूर्ववर्ती ग़ैर बीजेपी सरकारों द्वारा जारी. अर्थात् जनगणना के आंकड़े, जो ज़िलाधिकारी के सरकारी अमले की देख-रेख में होते हैं. इस तरह बीजेपी ने समस्त हिंदू समाज को अपना वोट बैंक बना लिया है और विपक्ष जातियों के चक्रव्यूह में फंसा रहा. मोदी काल में बस यह हुआ कि हिंदुओं में भय की यह भावना और प्रबल हो उठी. भय सदैव आतंक और हिंसा को प्रश्रय देता है.

आबादी पर ख़तरा

हिंदुओं को लगता है, कि दुनिया में 60 देशों में मुस्लिम बहुमत में हैं और इनमें से 57 का राजकीय धर्म इस्लाम है. इन 57 देशों का समूह आर्गेनाइज़ेशन ऑफ़ इस्लामिक कोआपरेशन (OIC) कहलाता है. इनके नाम से ही साफ़ है कि ये खुले तौर पर मुस्लिम देश हैं. जबकि हिंदुओं का अकेला एक देश नेपाल हुआ करता था, जहां पर अब वह भी राजकीय धर्म नहीं रहा. जबकि वहां 82 पर्सेंट से ऊपर हिंदू है. भारत में तो अब वह पर्सेंटेज 79.8 है. जबकि आज़ादी के बाद 1951 में हुई जनगणना में हिंदू आबादी 84.1 प्रतिशत थी. उस समय मुस्लिम आबादी 9.8 प्रतिशत थी, आज वह 14.2 प्रतिशत है. चूंकि अभी जनगणना नहीं हुई है, इसलिए एक मोटे अनुमान के अनुसार मुस्लिम आबादी 15 प्रतिशत के क़रीब है. बीजेपी इसे ज़ोर-शोर से प्रचारित कर लेती है और हिंदुओं का घटत का डर दिखा कर उन्हें अपने पाले में ले आती है.

बीजेपी का अकेला दांव

बीजेपी की यही पॉलिसी उसका एक ज़बर्दस्त वोट बैंक तैयार करती है. यह अनैतिक तो लग सकता है पर राजनीति में क्या पहले ऐसा नहीं होता रहा है? क्या चुनाव के वक़्त किए गए वायदे पूरे हुए? आज़ादी के पहले से और बाद में भी मुसलमानों और हिंदुओं के बीच एक रस्साकशी रही है. अंदरखाने दोनों ने सांप्रदायिक पत्ते चले. कांग्रेस ने इसका कोई तोड़ नहीं तलाशा, उलटे कभी हिंदू पाले में रही तो कभी मुस्लिम पाले में. सच तो यह है कि न आम हिंदू बंटवारा चाहता था न आम मुस्लिम. क्योंकि दोनों के दुःख-दर्द, रिश्ते-नाते समान थे. दोनों के आचार-विचार एक जैसे. दोनों के नैतिक मापदंड भी समान फिर भी बंटवारा हुआ. इसकी वजह थी राजनेताओं की अपनी महत्त्वाकांक्षा. दुःख की बात है कि राजनेताओं का बोया यह पेड़ अब वट-वृक्ष बन चुका है. जिसकी शाखाएं फैलती जा रही हैं. एक शाखा कमजोर होती है तो फ़ौरन दूसरी शाखा जड़ जमा लेती है. यह दुखद है किंतु सत्य है.

जिन्ना बनाम अब्बा जान

यही कारण है कि आज उत्तर प्रदेश में हर राजनीतिक दल सांप्रदायिक दांव ही चल रहा है. चाहे वह जिन्ना के नाम पर वोट मांगे जाएं या अब्बा ज़ान कह कर समाजवादी पार्टी को एक धर्म-विशेष की पार्टी बताया जाए. आज उत्तर प्रदेश में दो पार्टियां ही पूरी शिद्दत के साथ दिख रही हैं. एक तो सत्तारूढ़ दल बीजेपी (BJP) और दूसरी अखिलेश यादव के नेतृत्त्व वाली समाजवादी पार्टी (SP). ये दोनों ही पार्टियां वही दांव खेल रही हैं, जिससे हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण बढ़ेगा. कांग्रेस की तरफ़ से प्रियंका गांधी जुटी तो हैं लेकिन अब बहुत देर हो चुकी है. उत्तर प्रदेश में पिछले पांच साल से कांग्रेस दिखी ही नहीं. अब आख़िरी वक्त में उसने किसानों के आंदोलन के बहाने सक्रियता बढ़ाई है. बहुजन समाज पार्टी (BSP) को अपने दलित वोटों का भरोसा है, लेकिन वह भूल जाती है कि दलितों का जो एक बड़ा मध्य वर्ग तैयार हुआ है, वह उसी तरह से सोचता-विचारता है जैसे कि अगड़ी जातियों का मध्य वर्ग.

मिडिल क्लास ने तोड़े बंधन

जाति की राजनीति करने वाली पॉलिटिकल (POLITICAL) पार्टियां भूल जाती हैं, कि अब मंडल युग को गुजरे तीन दशक हो चुके हैं. इस बीच हर जाति का एक खाता-पीता मिडिल क्लास विकसित हुआ है, जो हर तरह से शहरी मध्य वर्ग की नैतिकता को अपना लेता है. वह अब जाति का इस्तेमाल सिर्फ़ शादी-विवाह में करता है. उसका यह आचरण उसे जातिवादी राजनीतिक दलों से दूर करता है. इसलिए अब बीजेपी का विकल्प बनने के लिए राजनीतिक दलों को जाति या संप्रदाय के आधार पर वोट मांगना बंद कर देना चाहिए. उन्हें बीजेपी की नाकामियों महंगाई और बेरोज़गारी को मुद्दा बनाना चाहिए. लेकिन जब राजनेताओं के मन में दृढ़ इच्छा-शक्ति का अभाव हो और वे ट्वीटर के ज़रिए लोगों की समस्या लिख कर पोस्ट करते रहेंगे तो यह बहुत मुश्किल लगता है कि वे विकल्प बन पाएंगे.

बेहतर शासन का वादा करिए

आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, केरल और तमिलनाडु में बीजेपी इसीलिए सत्ता में दख़ल करने का साहस नहीं कर पाती क्योंकि द्रविड़ सोच वाले समाज ने धर्म और जाति की राजनीति से दूरी बनाये रखी. इसी तरह पश्चिम बंगाल में बीजेपी इसलिए सफल नहीं हो सकी क्योंकि वहां ममता की तृणमूल बीजेपी की काट में ज़्यादा बड़ी लकीर खींचने में सक्षम रहीं. वे बंगाली अस्मिता को लेकर प्रकट हुईं और राज्य विधानसभा चुनाव में बीजेपी को पीछे छोड़ दिया. इसी तरह दिल्ली में अरविंद केजरीवाल ने मध्य वर्ग को ही टारगेट किया और स्कूल व अस्पताल के मुद्दे पर वे जीत गए. इस तरह दो बातें साफ़ हुईं. एक तो छोटे-छोटे क्षेत्रीय दलों ने कांग्रेस को सत्ता की दौड़ में पीछे कर दिया और दूसरी यह कि अब जातियों या धर्म का गठजोड़ नहीं बल्कि बेहतर प्रशासन, लोक कल्याण की स्पष्ट नीतियों पर चलने का वायदा करना होगा. यह रास्ता थोड़ा लंबा और उबाऊ है लेकिन एकमात्र इसी रास्ते पर चल कर कोई दल बीजेपी का विकल्प बनेगा. अब आगे क्या होगा, यह तो भविष्य बताएगा.

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