Arbi ki Kheti-परंपरागत खेती की तुलना में किसानों को नई व तकनीकी खेती से अधिक मुनाफा मिल रहा है. यही कारण है कि किसान ने एक बीघा जमीन में अरबी उगाई है. इस समय यह खेती बहार पर है. अगले माह इस फसल से किसान को डेढ़ लाख रुपए से भी अधिक कमाई होने की संभावना है. किसान 10 बीघा जमीन के छोटे कास्तकार हैं. इस जमीन में अरबी, आलू, प्याज, लहसुन, गेहूं, चना, सरसो, सोयाबीन, मसूर, मंगू व मूंगफली के साथ कई तरह की मिश्रित खेती कर प्रतिवर्ष लाखों की कमाई कर सकते हैं. इस बार एक बीघा जमीन से अरबी की खेती शुरू की है. किसान अरबी की जगह परंपरागत खेती से बहुत कमाई होती है.
अरबी की अन्तवर्ती खेती एक बेहतर विकल्प होगा, किसान जाने किन फसलो के साथ कर सकते हैं. इसमें मक्का के साथ, आलू के साथ भी की जाती है खेती इससे कई तरह के फायदे किसान उठा सकते हैं. डा. राजेन्द्र प्रसाद केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय, पूसा समस्तीपुर बिहार के अखिल भारतीय समन्वित कंदमूल अनुसंधान परियोजाना, तिरहुत कृषि महाविद्यालय ढ़ोली केन्द्र पर किए गए अनुसंधान के परिणामों से यह साबित हो गया है. अरबी के साथ और भी फसल उगाए जा सकते हैं.
फसल वैज्ञानिक (crop scientist) डाक्टर आशीष नारायण के मुताबिक
सिंचित अवस्था (irrigated condition) में अरबी की दो कतारों के बीच प्याज के तीन कतारों की अन्तर्वर्ती खेती की जाए तो अतिरिक्त मुनाफा प्राप्त हेाता है.
इसके अलावा अरबी की अन्तर्वर्ती खेती लीची और आम के नये लगाए गए है. इसे बगीचों में भी सफलतापूर्वक किया जा सकता है. जिससे पेड़ों के कतारों के बीच पड़ी भूमि का सही ढ़ग से इस्तेमाल हो जाता है. साथ हीं साथ बागों की निकाई-गुड़ाई होते रहने के कारण फलों की अच्छी उपज प्राप्त होती हैं.
रबी मक्का की खड़ी फसल में कतारों के बीच अरबी की रोपाई फरवरी में करके भी अच्छी आय प्राप्त की जा सकती है. मक्का कटने के बाद अरबी की फसल मे वांछित कृषि का कार्य कर सकतें हैं.
फसल वैज्ञानिक डाक्टर आर एस सिंह के मुताबिक
फसल चक्र एवं अन्तवर्ती खेती
फरवरी रोपाई जून रोपाई
भिन्डी-अरबी-आलू अरबी-मक्का-मटर
प्याज-अरबी-फूलगोभी अरबी-मक्का-षकरकंद
भिन्डी-अरबी-षकरकंद अरबी-मक्का-मिश्रीकंद
अरबी-मक्का-तोरी
ये कुछ उन्नत नस्ल हैं
राजेन्द्र अरबी-1
यह अरबी की अगेती किस्म है जो 160 से 180 दिनों में तैयार हो जाती है इस प्रभेद की खेती सम्पूर्ण बिहार में करने लिए राजेन्द्र कृषि विष्वविद्यालय, बिहार, पूसा (समस्तीपुर) द्वारा 2008 में अनुषंसित किया गया. इसकी औसत उपज 18-20 टन/हेक्टर है.
2. मुक्ताकेषी
यह प्रभेद केन्द्रीय कन्दमूल फसल अनुसंधान संस्थान के क्षेत्रीय केन्द्र भुवनेष्वर (उड़िसा) द्वारा 2002 में विकसित की गयी. इसकी उपज क्षमता 16 टन/हेक्टर है तथा इसे आसानीपूर्वक पकाया जा सकता है
3. ए0 ए0 यू0 काल-46
अखिल भारतीय समन्वित कन्दमूल अनुसंधान के 15वें वार्षिक कर्मशाला द्वारा इस प्रभेद को बिहार में खेती के लिए वर्ष 2015 में अनुशंसित किया गया. यह प्रभेद मध्यम अवधि (160-180 दिनों) में तैयार हो जाती है. इसके कन्द, डठंल तथा पत्तिया कबकबाहट रहित होते हैं जो पत्रलांक्षण रोग तथा तम्बाकु इल्ली कीट के प्रति मध्यम सहिष्णु है. इसकी उपज क्षमता 18-20 टन/हे0 है.
प्रयोग के परिणाम से यह ज्ञात हुआ है कि स्वस्थ एवं अच्छी उपज प्राप्त करने हेतु प्रत्येक पौधे में अधिकतम तीन पत्तियों को छोड़कर शेष को काट कर बाजार में बेच दें या सब्जी बनाने हेतु इस्तेमाल करें.
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