TDP ने लोकसभा स्पीकर समेत 5-6 मंत्री पद मांगे, जेडीयू ने भी स्पीकर समेत कैबिनेट में उचित प्रतिनिधित्व मांगा

नई दिल्ली, 5 जून 2024। भाजपा को इस बार तीसरी बार सत्ता की सीढ़ी तक पहुंचने के लिए सहयोगियों की जरूरत होगी। 272 का जादुई आंकड़ा छूने के लिए इस बार भाजपा को नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू के कंधे की जरूरत पड़ेगी। दोनों को साधने के लिए भाजपा ने तैयारियां शुरू कर दी हैं, लेकिन दोनों का साथ इस भाजपा के लिए आसान नहीं होने वाला है। टीडीपी सूत्रों का कहना है कि उन्होंने लोकसभा स्पीकर, रोड ट्रांसपोर्ट, रूरल डेवलपमेंट, हेल्थ, हाउसिंग एंड अर्बन अफेयर्स, कृषि, जल शक्ति, आईटी एंड कम्यूनिकेशंस, एजुकेशन, फाइनेंस (एमओएस) समेत पांच-छह कैबिनेट और राज्य मंत्री का पदों की डिमांड की है। वहीं जेडीयू ने भी स्पीकर के पद की मांग के साथ कैबिनेट में उचित प्रतिनिधित्व मांगा है। भाजपा से जुड़े सूत्र बताते हैं कि दोनों दलों की डिमांड लिस्ट आ गई है। इस पर फैसला भाजपा के नेतृत्व को लेना है। भाजपा नेतृत्व की भी कुछ आशंकाएं और मांगें हैं, जब साथ बैठेंगे तो कुछ न कुछ रास्ता जरूर निकलेगा।

क्यों अहम है स्पीकर का पद
सूत्रों से मिली जानकारी के मुताबक जेडीयू और टीडीपी दोनों ही दलों ने यह मांग इसलिए उठाई हैं क्योंकि उन्हें भविष्य में अपनी ही पार्टी को विभाजन से बचाना चाहते हैं। स्पीकर की भूमिका दल-बदल वाले कानून के चलते सबसे अहम होती है।

इसीलिए दोनों ही दल यह स्पीकर का पद अपने कोटे में रखने के लिए एनडीए की बैठक में मोर्चा खोल सकते हैं। बता दें कि दल-बदल कानून को लेकर सुप्रीम कोर्ट के पास बेहद ही सीमित अधिकार है।

महाराष्ट्र है सबसे बड़ा उदाहरण
ऐसे कई उदाहरण हैं कि जहां आरोप लगाए गए कि स्पीकर ने अयोग्यता वाली याचिकाओं पर फैसला करने में पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाया था।पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र विधानसभा अध्यक्ष राहुल नार्वेकर को सीएम एकनाथ शिंदे और उनके विधायकों के खिलाफ दलबल कार्यवाही करने का फैसला दिया था, लेकिन इन इन याचिकाओं पर सुनवाई में देरी के चलते पार्टी का विभाजन हो गया था।

सत्तारूढ़ दल या गठबंधन के लिए अहम है स्पीकर की कुर्सी
इतना ही नहीं, लोकसभा के संवैधानिक और औपचारिक प्रमुख अध्यक्ष पद आम तौर पर सत्तारूठ गठबंधन के पास ही जाता है, उपाध्यक्ष का पद पारंपरिक रूप से विपक्षी दलों के सदस्य के पास जाता है। हालांकि अहम बात यह भी है कि लोकसभा के इतिहास में पहली बार 17वीं लोकसभा उपाध्यक्ष के चुनाव के बिना ही संपन्न हो गई थी।