बजट में मिलेट फूड को प्रमोट करेगी सरकार

नई दिल्ली ,28 जनवरी  केंद्र सरकार बजट  बजट 2023-24 में मोटे अनाजों के उत्पादन पर किसानों को विशेष प्रोत्साहन दे सकती है। यह प्रोत्साहन मोटे अनाजों के उत्पादन पर न्यूनतम समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी और फसलों के बीज-खाद में छूट के रूप में हो सकती है। मोटे अनाज का उपयोग कर प्रोसेस्ड फूड बनाने वाली कंपनियों को भी बजट में प्रोत्साहन दिया जा सकता है। सरकार का अनुमान है कि मोटे फसलों के उत्पादन को बढ़ोतरी देकर न केवल किसानों की आय बढ़ाई जा सकती है, बल्कि इससे कुपोषण और जल संकट जैसी समस्याओं से निबटने में मदद भी मिल सकती है।



केंद्र सरकार ने पिछले बजट के दौरान ही वर्ष 2023 को मिलेट वर्ष के रूप में मनाने की घोषणा कर दी थी। इसके बाद संयुक्त राष्ट्र के स्तर पर 2023 को मिलेट ईयर घोषित किया गया था। इस प्रस्ताव को 70 देशों का समर्थन भी मिला था। इससे मिलेट फूड अचानक चर्चा में आ गया और वैश्विक स्तर पर इसको बढ़ावा देने के प्रयास किए जाने लगे।

किसानों की आर्थिक बदहाली को दूर करने के लिए सरकार कई स्तरों पर प्रयास करती रही है। किसान भी अपनी आय बढ़ाने के लिए फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी किए जाने की मांग करते रहे हैं। कृषि विशेषज्ञों का मानना है कि मोटे अनाज के उत्पादन को बढ़ावा देकर किसानों की आय बढ़ाई जा सकती है। गेहूं, धान की तुलना में मोटे अनाजों के उत्पादन में पानी और खाद की लागत बहुत कम आती है। इससे इन फसलों को बेचने के बाद किसानों को ज्यादा बचत होगी और उनकी आर्थिक स्थिति बेहतर हो सकेगी।

उत्तर भारत में प्रमुखता से पैदा की जाने वाली फसलों गेहूं-धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य बेहतर होता है। सरकारी एजेंसियों के द्वारा इन फसलों की ज्यादा आसानी से खरीद होती है और साथ ही ये खुले बाजार में भी बहुत आसानी से बिक जाता है। यही कारण है कि ज्यादातर किसान भारी मात्रा में गेहूं-धान का उत्पादन करते हैं। ज्यादा पैदावार की लालच में वे इसमें भारी मात्रा में रासायनिक उर्वरकों और जल का उपयोग करते हैं। इससे फसलों की लागत बढ़ती है और इन फसलों का उत्पादन घाटे का सौदा बन जाता है। फिर भी न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलने के कारण किसान इन्हीं फसलों का उत्पादन करना ठीक समझते हैं।

गेहूं की फसल में औसतन चार बार सिंचाई करनी पड़ती है। पिछेती फसल होने पर पांच बार तक सिंचाई की जरूरत पड़ जाती है। धान की फसल में बीज रोपने से लेकर बीज लगने तक भारी मात्रा में पानी की जरूरत होती है। वर्षा न होने के कारण इस जल की जरूरत ट्यूबवेल के माध्यम से जमीन के नीचे का जल निकालकर की जाती है। लेकिन इससे भूमि जल का स्तर लगातार गिरता जा रहा है और पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में इसी कारण पेयजल का भारी संकट पैदा होने लगा है। यदि किसानों को गेहूं-धान की बजाय मोटे अनाज उत्पादन की ओर खींचा जा सके, तो इस संकट से छुटकारा मिल सकता है।

यदि मिड डे मील के रूप में मोटे अनाजों को बढ़ावा दिया जा सके, तो इससे गरीब समुदाय के बच्चों में विभिन्न पोषक तत्त्वों की कमी को भी आसानी से पूरा किया जा सकता है। गेहूं में भारी मात्रा में ग्लूटेन प्रोटीन होता है। लेकिन बहुत लोगों को अब ग्लूटेन एलर्जी होने लगी है जिससे वे गेहूं खाने से बचने लगे हैं। ऐसे लोगों के लिए मोटा अनाज एक सुपर फूड के रूप में काम कर सकता है।

भाजपा किसान मोर्चा के पूर्व राष्ट्रीय महामंत्री नरेश सिरोही ने अमर उजाला से कहा कि मोटे अनाज अपनी प्रकृति में क्षेत्रीय होते हैं। क्षेत्र विशेष के पर्यावरण के अनुसार अलग-अलग स्थानों पर बाजरा, ज्वार, मक्का, रागी इत्यादि पैदा होता है। इनकी सबसे बड़ी विशेषता होती है कि इन फसलों में वही पोषक तत्त्व ज्यादा पाए जाते हैं, जिसकी उस क्षेत्र विशेष के प्राणियों को प्राकृतिक रूप से जरूरत होती है। यही कारण है कि अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग प्रकार के मोटे अनाज पैदा होते हैं।

नरेश सिरोही ने कहा कि भारत में मिश्रित खेती की परंपरा रही है। इसमें दूसरी फसलों के बीच-बीच में मोटे अनाज की फसलें पैदा की जाती रही हैं। सरकार समन्वित कृषि प्रणाली चक्र अपनाने को बढ़ावा देकर मोटे अनाज के उत्पादन को मुख्य धारा में ला सकती है। इससे एक तरफ किसानों की आय बढ़ेगी तो दूसरी ओर लोगों को रसायनमुक्त सुपरफूड खाने को मिलेगा जिससे उन्हें बीमारियों से मुक्त रहने में मदद मिलेगी।