वर्धा ,03 जनवरी । महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में भारतीय दर्शन महासभा के 95 वे अधिवेशन तथा चतुर्थ एशियाई दर्शन सम्मेलन के अवसर पर प्रदर्शनकारी कला विभाग ने अद्वैत दर्शन पर आधारित नाटक ‘अद्वैत पथ’ कि मंचन टैगोर कल्चरल काम्प्लेक्स के निराला प्रेक्षागृह में किया। विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. रजनीश कुमार शुक्ल के मार्गदर्शन में इस नाटक का लेखन एवं निर्देशन विभागाध्यक्ष डॉ.ओम प्रकाश भारती द्वारा किया गया। इस अवसर पर विशेष अतिथि के रूप में केंद्रीय शिक्षा राज्य मंत्री डॉ. राज कुमार रंजन सिंह उपस्थित थे।
‘अद्वैत पथ’ मूलत: शंकराचार्य तथा मंडन मिश्र के बीच हुए संवाद तथा शास्त्रार्थ पर आधारित है । नाटक में सातवीं शताब्दी में प्रचलित बहुदेववादी प्रथा, छुआछूत तथा जाति व्यवस्था के प्रति प्रतिरोध दिखाया गया है । नाटक का आरम्भ शंकराचार्य को ‘अद्वैत ‘ का ज्ञान होने तथा गुरु गोविंदपाद से आशीर्वाद प्राप्त कर उत्तर भारत में अद्वैत मत के प्रचार हेतु जाने के आदेश से होता है। दूसरे दृश्य में काशी यात्रा के दौरान शंकराचार्य और अन्त्यज का संवाद होता है । शंकराचार्य प्रयागराज पहुँचते हैं और कुमारिल भट्ट से संवाद करते हैं । और उनकी ही आज्ञा से मिथिला स्थित ग्राम महिषी के मंडन मिश्र से शास्त्रार्थ करने पहुँचते हैं ।
मंडन मिश्र पूर्व मीमांसा के मर्मज्ञ तथा वेदों में कर्मों की प्रधानता के पक्षधर हैं । शंकराचार्य और उनके बीच शास्त्रार्थ में मंडन मिश्र की पराजय होती है । फिर उनकी पत्नी उभया भारती शंकराचार्य को शास्त्रार्थ के लिए आमंत्रित करती हैं । वे शंकराचार्य से सृष्टि शास्त्र / कामशास्त्र विषयक ज्ञान के बारे में प्रश्न करती हैं । शंकराचार्य तत्काल परास्त होते हैं तथा उपरोक्त विषय में अपने ज्ञानार्जन हेतु एक वर्ष का समयांतर मांगते हैं । इस हेतु वे परकाया में प्रवेश कर काम विषयक ज्ञान अर्जित कर पुन: महिषी ग्राम शास्त्रार्थ के लिए प्रस्तुत होते हैं । इधर मंडन मिश्र और उभय भारती को इसका आभास हो जाता है । वे दोनों शंकराचार्य के शरणागत होते हुए अद्वैत मत में दीक्षित हो जाते हैं ।
नाट्यभाषा सहज, जीवंत तथा प्रवाहमान है । संवाद शैली नाटक का अंतर्द्वंद्व तथा घटनाओं का उतार-चढ़ाव दर्शकों को अद्वैत दर्शन जैसे गूढ़ विषय को समझने में सहायता करती है । अभिनय, संगीत तथा दृश्य-संयोजन शैलीबद्ध है। नाटक एक यात्रा की तरह आरम्भ होता और दक्षिण भारत से चलते हुए काशी प्रयागराज होते हुए मिथिला में जाकर स्थापित हो जाता है । निर्देशक ने महिषी ग्राम को केंद्र में रखते हुए तत्कालीन मिथिला की सामाजिक तथा सांस्कृतिक परिदृश्य /परिवेश को बखूबी दर्शाया है । सातवीं शताब्दी के मिथिला में पनिहारिन द्वारा शंकराचार्य से संस्कृत में संवाद करना, प्रसिद्द सिद्ध संत सरहपा, कवि डाक, अघोर तथा तांत्रिको की उपस्थिति से नाटक जीवंत हो उठता है । शास्त्रार्थ के समय पखावज के बोल सामान्य स्थिति में तंत्रीवाद्य की धुनें तथा मिथिला उत्सव के समय रशन चौकी तथा सोहर की प्रस्तुति निर्देशकीय परिकल्पना को विशिष्ट आयाम देता है । 1 घंटे 10 मिनट तक चलने वाले नाटक में दर्शकों की प्रतिक्रिया नाटक की सफलता में एक नया आयाम जोड़ता है ।
इस नाटक में निम्न अभिनेताओं ने अपने उदात्त अभिनय के माध्यम से नाटक के केंद्रीय भाव को उद्घाटित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है –
विवेक मिश्र (आदि शंकराचार्य), उत्कर्ष उपेन्द्र सहस्त्रबुद्धे (मंडन मिश्र), स्वाति सैनी (उभया भारती), विष्णु कुमार (मंडन मिश्र के कुल पुरोहित), अभिनीत कुमार पांडेय (गोविंदपाद), मीनू त्रिपाठी, राजू सहनी (शिव तांडव), दीपक कुमार, दीपक यादव, ज़ीशान साबिर, यश गर्ग (सन्यासी), अभिनीत कुमार पाण्डेय, राहुल कुमार, कपिल रत्नपाल बहादुरे, रवि श्रीवास्तव, नितिन कुमार( संतगण), मनीष तिवारी, कुणाल कुमार( द्वारपाल), अंकिता चौधरी, अश्विनी रोकड़े, दीपिका कुलसंगे (पनिहारिन) ने विविध भूमिका निभाई। उत्कर्ष उपेन्द्र सहस्रबुद्धे, रचित दत्त, अश्विनि रोकड़े, अंकिता चौधरी, सचिन कुमार, दीपिका कुलसंगे आदि छात्र कलाकारों ने कोरस गायन किया ।
इस नाटक के सहायक निर्देशन डॉ. सतीश पावड़े थे । सुहास नगराळे, राहुल यादव ने प्रकाश संयोजन किया । डॉ. पुनीत पटेल ने संगीत संयोजन, अर्चना निगम, अश्विनी रोकड़े ने वेशभूषा, जीतेन्द्र कुमार, अर्चना निगम ने रूपसज्जा की जिम्मेकदारी का निर्वहन किया । शिवकांत वर्मा, जितेंद्र कुमार, रत्नेश साहू, अश्विनी निहारे, संगीता टिपले ने मंच प्रबंधन की जिम्मेेदारी सम्भानली थी। हेतु डॉ. तेजस्वी एच. आर., डॉ. वागीश राज शुक्ल, डॉ. पुनीत पटेल तथा डॉ. मंजरी बख़्शी ने विशेष सहयोग दिया।
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