छतरपुर22 जनवरी (वेदांत समाचार)। मध्यप्रदेश में छतरपुर का बरट ऐसा गांव है, जहां दरवाजे पर नहीं पेड़ पर सांकल (कुंडी) लगाते हैं। पूजा स्थल पर सोना-चांदी या मिठाई नहीं, नारियल के साथ लोहे के सांकल चढ़ाए जाते हैं। ग्रामीण मानते हैं कि ऐसा करने से वे बीमारियों से सुरक्षित रहते हैं। 70 साल से ज्यादा समय से यह परंपरा चली आ रही है।
भास्कर की टीम छतरपुर से करीब 20 किमी दूर छोटे से गांव बरट पहुंची। गांव देखने में आम गांव की तरह ही है, लेकिन यहां पूजा और प्रसाद चढ़ाने की अलग परंपरा है। तालाब किनारे प्राचीनकालीन बटेश्वर धाम शंकर भगवान का मंदिर है। इसके नाम पर ही इस गांव का नाम बरट पड़ा है। मंदिर से कुछ दूर बने पूजा स्थल किनारे लोहे की सांकल से पूरी तरह लदा हुआ पेड़ दिखाई देता है।
ग्रामीणों ने बताया कि इस स्थल को सकय्या (सांकल को यहां की बोली में सकय्या कहते हैं) बब्बा या गौड़ बब्बा कहते हैं। दुर्गानवमीं के दिन बरट के साथ आसपास के गांव के लोग भी बड़ी संख्या में आकर बीमारियों से बचने और मन्नत पूरी होने पर सांकल चढ़ाते हैं। सकय्या बब्बा के नाम से यहां पूजास्थल व उससे लगा पेड़ है, जो बहुत पुराना है।
1940 में फैले हैजा से जुड़ी है इसकी आस्था, बीमारी से बचाया
64 साल के उप सरपंच हीरालाल राजपूत बताते हैं कि यह प्रथा और आस्था बहुत पुरानी है। शुरुआत का तो नहीं पता, लेकिन बड़े-बुजुर्ग बताते हैं कि जब भारत में 1940 के दौरान गांव-गांव में हैजा फैला था। उस समय से यहां लोगों ने इससे बचने के लिए सांकल चढ़ाना शुरू किया। इससे पहले भी ऐसा रहा होगा, लेकिन उस दौरान गांव में किसी को हैजा नहीं हुआ और न ही किसी की मौत हुई।
इसके बाद अब हर साल हर परिवार दुर्गा नवमीं और रामनवमीं के दिन अपने परिवार की रक्षा व बीमारी से बचाने के लिए यहां यह सांकल चढ़ाते हैं। राजपूत बताते हैं कि पिछले 2-3 साल से देश-दुनिया में कोरोना फैला हुआ है, लेकिन यहां अब तक किसी भी गांव वालों व इससे जुड़े तीन गांव में कोई केस नहीं मिले हैं। गांववालों का मानना है कि यह सब इस पूजा व आस्था के कारण ही हुआ है।
मान्यता ऐसी कि दिल्ली तक से आते हैं भक्त
62 साल के रामस्वरूप राजपूत बताते हैं कि लंबे समय से गांववालों के लिए यह जगह मन्नत का केंद्र है। गांव के जो लोग बाहर बड़े शहर चले गए हैं, वे आकर सांकल चढ़ाते हैं। भोपाल, दिल्ली तक के लोग आते हैं। अभी दूसरी लहर में दिल्ली से यहां के लोग कोरोना लेकर आए लेकिन वे ठीक भी हो गए।
कई क्विंटल लोहे के सांकल पेड़ के अंदर समा गए
गांव के 70 साल के कमलापथ विश्वकर्मा बताते हैं कि पेड़ में लगाए जाने वाले सांकल नहीं निकाले जाते हैं, बल्कि वे कुछ समय बाद पेड़ के अंदर ही समा जाते हैं।
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