यदि आप जा रहे हैं मेकाहारा तो सावधान…

रायपुर20 दिसम्बर(वेदांत समाचार)। छत्तीसगढ़ का सबसे बड़ा सरकारी अस्पताल डॉ. भीमराव अम्बेडकर स्मृति चिकित्सालय, यानि मेकाहारा। यहां जितना कठिन समूचित इलाज पाना है उतना ही कठिन लेखा संबंधी काम आसानी से कराना। जी हां क्योंकि यहां सरकारी नहीं अफसरों के मुंह बोले फरमान चलते हैं।

ऐसा ही एक मामला सामने आया है, जिसमें अस्पताल की ओपीडी में इलाज कराने वाले सरकारी कर्मचारी मरीज जब अपने इलाज में खर्च हुई राशि सरकार से प्रतिपूर्ति के लिए अस्पताल के लेखा शाखा में पहुंचा तो पहले तो दस्तावेज यह बोलकर लेने से मना कर दिया गया, कि दवाओं के देयक हस्त लिखित हैं। मेकाहारा के सहायक अधीक्षक डॉ. ए. वसीम ने उन्हें हस्त लिखित देयक प्रतिपूर्ति को लेने से मना किया है।

इसके बाद मरीज मेडिकल से दवाओं के कम्प्यूटरीकृत बिल प्राप्त करने के बाद जब दस्तावेज जमा हो गए, तो करीब हफ्ते दिन बीत जाने के बाद जब वापस दस्तावेेज लेने बुलाया गया तो दस्तावेज में प्रतिहस्ताक्षर इसलिए नहीं हुए, क्योंकि डॉक्टर के हस्ताक्षर अस्पताल की मेडिसीन पर्ची में नहीं थी। एक जूनियर डॉक्टर ने पर्ची पर दवा लिखते समय अपने हस्ताक्षर और अगली तिथि तक दवा लेने लिखा था। यहां पर जूनियर डॉक्टर भी इसी अस्पताल में कार्यरत सहायक प्राध्यापक व स्थानीय चिकित्सक है। पर्ची में डॉक्टर के हस्ताक्षर के लिए ही दस्तावेजों में प्रतिहस्ताक्षर 7 दिनों तक लंबित रखा गया, जबकि आज के आधुनिक वक्त में दूरभाष जैसी सुविधा उपलब्ध है। इसके साथ ही जिस दस्तावेज पर प्रतिहस्ताक्षर करना था वह अस्पताल का प्रशासनिक विभाग है और इलाज और दस्तावेज पर हस्ताक्षर करने वाला डॉक्टर विभागाध्यक्ष। यहां पर अस्पताल प्रबंधन डॉक्टर को पर्ची पर हस्ताक्षर करने प्रबंधन प्रेषित कर सकता था, लेकिन यह नहीं हुआ।

यहां पर यह बताना आवश्यक है कि प्रतिपूर्ति देयक के दस्तावेज नौकरी करने वाले कार्यालय में उपचार के तत्काल बाद जमा करना होता है, इसे उपचार प्रारंभ होने की तिथि से 6 माह के कार्यदिवस में सभी प्रक्रियाएं पूरी कर भुगतान के लिए विभाग के वित्त शाखा को भेजा जाता है। यदि दस्तावेज में किसी प्रकार की देरी होती है तो ऐसे दस्तावेजों पर भुगतान स्वीकार नहीं होता।

मरीज के परिजन जब बुलाए गए 7 दिन बाद दस्तावेज लेने पहुंचे तो उन्हें इस आपत्ति की जानकारी दी गई और डॉक्टर से हस्ताक्षर करवाने कहा गया। इस प्रक्रिया को पूरा करने के बाद ही दस्तावेज पर प्रतिहस्ताक्षर करीब 14 दिन बाद किया गया।

जब वीएनएस की टीम ने सहायक अधीक्षक डॉ. ए. वसीम से इस संबंध में जानकारी चाही तो, डॉक्टर वसीम ने कहा इस तरह के फैसले अधिकारियों के साथ बैठकों में होते हैं। इस तरह की कोई लिखित नियमावली नहीं है। उन्होनें बताया कि इस फैसले की जानकारी स्वास्थ्य मंत्री टी.एस. सिंहदेव को भी है।

वहीं जब हमने अस्पताल के अधीक्षक डॉ.सत्यभुन नेताम से मिलकर इस पर उनका पक्ष जानने की कोशिश की तो उन्होंने मिलने का वक्त ही नहीं दिया।

यहां पर सबसे बड़ा सवाल यही है कि मरीजों और उनके परिजनों को अस्पताल प्रबंधक अपनी सुविधा के लिए नियम बनाकर इधर-उधर का चक्कर कटवाते हैं। ऐसे अफसरों पर सरकार कठोर कार्रवाई क्यों नहीं करती, जबकि ऐसा कोई सरकारी फरमान नहीं है। इसके साथ ही यदि इसकी जानकारी प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री को है तो वे इसे लिपिबद्ध क्यों नहीं करवा देते। ताकि मरीजों व उनके परिजनों को आगे परेशानी न हो।

बता दें कि प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री टी.एस. सिंहदेव इन दिनों प्रदेश की स्वास्थ्य व्यवस्था को बेहतर और हाईटेक कर रहे हैं। ऐसे में सरकार के सबसे बड़े अस्पताल में इस तरह के अफसरों के कृत्य से सरकार की छवि तो धूमिल हो ही रही है। ऐसे अफसर प्रदेश के मुखिया भूपेश बघेल और स्वास्थ्य मंत्री टी.एस. सिंहदेव के सपनों पर पानी फेर रहे हैं।