नई दिल्ली । पत्नी के नौकरीपेशा होने का आधार बनाकर भरण-पोषण की जिम्मेदारी से भागने की कोशिश करने वाले पुरुषों को लेकर दिल्ली हाई कोर्ट ने आदेश पारित करते हुए अहम टिप्पणी की है।
न्यायमूर्ति सुब्रमण्यम प्रसाद की पीठ ने स्पष्ट किया कि जिन घरों में महिलाएं नौकरी करती हैं और अपना भरण-पोषण करने में सक्षम हैं, वहां पति बच्चों के लिए भरण-पोषण प्रदान करने की अपनी जिम्मेदारी से स्वत: मुक्त नहीं हो जाता है। दंड प्रक्रिया संहिता की धारा-125 के तहत पारित रखरखाव आदेश के संशोधन के संबंध में पीठ ने उक्त टिप्पणी की।
पीठ ने कहा कि बच्चों को पालने और शिक्षित करने के पूरे खर्च का बोझ मां पर नहीं डाला जा सकता है। एक पिता का अपने बच्चों के लिए समान कर्तव्य है और ऐसी स्थिति नहीं हो सकती है कि केवल मां को ही बच्चों को पालने और शिक्षित करने के लिए खर्च का बोझ उठाना पड़ता है। पीठ ने कहा कि पति अपनी पत्नी को मुआवजा देने के लिए बाध्य है जोकि बच्चों पर खर्च करने के बाद शायद ही खुद को बनाए रखने के लिए कुछ भी बचा पाती हो।
पीठ ने माना कि अदालत इस वास्तविकता से अपनी आंखें बंद नहीं कर सकती है कि केवल बालिग होने से नहीं माना जा सकता कि बड़ा बेटा पर्याप्त रूप से कमा रहा है। 18 वर्ष की आयु में यही माना जाता है कि बेटा या तो 12 वीं कक्षा में है या कालेज के पहले वर्ष में है।
अदालत ने उक्त टिप्पणी अपने ही एक पूर्व के आदेश की आपराधिक समीक्षा याचिका पर विचार करते हुए की। इसके तहत अदालत ने निर्देश दिया था कि अंतरिम भरण-पोषण के रूप में पति अपनी पत्नी को प्रति माह 15 हजार रुपये तब तक देगा जब तक बेटा स्नातक की परीक्षा पूरी नहीं कर लेता या फिर कुछ कमाई शुरू नहीं कर देता है। भरण-पोषण से जुड़े मामले में अदालत के फैसले के बाद दायर समीक्षा याचिका पर दिल्ली हाई कोर्ट ने ये टिप्पणी की।
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