संतों को क्यों दी जाती है भू-समाधि? 1200 वर्ष पुरानी है परंपरा

नई दिल्ली: हिंदू धर्म में माना जाता है कि शरीर नश्वर है और आत्मा अमर है. हिंदू परंपरा में मृत्यु के बाद शरीर का दाह संस्कार इसलिए किया जाता है ताकि शरीर से आत्मा का मोह समाप्त हो जाए. लेकिन जब किसी संत की मृत्यु होती है तो उन्हें भू-समाधि या जल समाधि दी जाती है, उनका दाह संस्कार नहीं किया जाता. इसी परंपरा के तहत बुधवार को महंत नरेंद्र गिरि को भी उत्तर प्रदेश के प्रयागराज के बाघंबरी मठ में भू-समाधि दी गई. दो दिन पहले महंत नरेंद्र गिरि ने आत्महत्या कर ली थी, हालांकि जांच के बाद ही ये पता चलेगा कि उन्होंने सच में आत्महत्या की थी या फिर उनकी हत्या की गई है?

समाधि से पहले हुआ पोस्टमार्टम

महंत नरेंद्र गिरि ने अपने सुसाइड नोट में लिखा था कि उन्हें उनके मठ में उस नींबू के पेड़ के नीचे भू-समाधि दी जाए जिसे उन्होंने ही लगाया था. जिस स्थान पर महंत नरेंद्र गिरि को भू-समाधि दी गई है उसी के पास उनके गुरू को भी समाधि दी गई थी. संत परंपरा में अक्सर शिष्यों को उनके गुरुओं के समाधि स्थल के पास ही समाधि दी जाती है. इससे पहले बुधवार सुबह उनके शव का पोस्टमार्टम किया गया और डॉक्टरों ने इसकी रिपोर्ट उत्तर प्रदेश पुलिस को सौंप दी है, जिसे अभी सार्वजनिक नहीं किया गया है. इसके बाद नरेंद्र गिरि के पार्थिव शरीर को फूलों से सजे रथ पर रखकर संगम ले जाया गया. माना जाता है कि यहीं पर गंगा, जमुना और सरस्वती नदियों का संगम होता है. यहीं उनके पार्थिव शरीर को स्नान कराया गया और फिर उन्हें लेटे हनुमान मंदिर के दर्शन कराए गए. महंत नरेंद्र गिरि प्रयागराज के लेटे हनुमान मंदिर के भी महंत थे.

16 प्रकार से सजाया गया शरीर

इसके बाद उनके शरीर को बाघंबरी मठ के एक बगीचे में भू-समाधि दी. इसके लिए वहां 10 से 12 फीट गहरा गड्ढा खोदा गया और यहां एक छोटा सा कमरा भी बनाया गया. इसी कमरे में महंत नरेंद्र गिरि का पार्थिव शरीर रखा गया है. जब किसी संत को भू-समाधि दी जाती है तो उन्हें सिद्ध आसन में बिठाया जाता है और उनके शरीर को 16 प्रकार से सजाया जाता है और फिर वैदिक मंत्रोचारण के साथ उन्हें समाधि दी जाती है. हालांकि समाधि के आखिर चरण को पूरी तरह से गुप्त रखा जाता है और उस स्थान को पर्दों और चादर की मदद से ढक दिया जाता है.

संतो को भू-समाधि क्यों दी जाती है?

माना जाता है कि संतों को भू-समाधि देने कि परंपरा 1200 वर्ष पुरानी है. 9वीं शताब्दी में आदिशंकराचार्य ने भी भू-समाधि ली थी, जिन्हें भगवान विष्णु का अवतार माना जाता है. आदिशंकराचार्य ने ही भारत की चारों दिशाओं में मठों की स्थापना की थी और माना जाता है कि यहीं से भारत में मठ परंपरा की शुरुआत हुई थी. संतों को भू समाधि इसलिए दी जाती है ताकि उनकी मृत्यु के बाद भी उनके शिष्य और अनुयायी समाधि स्थल पर जाकर उनके दर्शन कर पाएं और उनकी उपस्थति को महसूस कर पाएं.

भगवान राम ने भी ली थी जल समाधि

कुछ संत जल समाधि भी लेते हैं, लेकिन नदियों में प्रदूषण की वजह से अब बहुत कम संत ही ऐसा करते हैं. कहा जाता है कि त्रेता युग में भगवान राम ने भी अयोध्या के पास सरयू नदी में जल समाधि ली थी. तब उनके साथ उनका पूरा परिवार भी मौजूद था, भगवान श्री राम के जल समाधि लेने से पहले उनकी पत्नी सीता ने भी खुद को पृथ्वी में समाहित कर लिया था. लेकिन ये कितने अचरज की बात है, कि भगवान राम ने जीवन में अलग-अलग किरदार निभाए. कभी पुत्र का, कभी पति का, कभी पिता का, तो कभी रावण के विरुद्ध लड़ने वाले एक योद्धा का. रावण का वध करने के बाद वो जब वो अयोध्या लौटे तो उन्होंने राज पाट भी संभाला. लेकिन उन्होंने संन्यास नहीं लिया, बल्कि संसार में रहते हुए और सांसरिक कर्तव्य निभाते हुए भी वो हर तरह की मोह माया से दूर थे. लेकिन आज के दौर में कई बार साधु संत भी मोह माया को छोड़ नहीं पाते.

भारत में 99.99% लोग धर्म को मानते हैं

इसे समझने के लिए पहले आप भारत में धर्म और अध्यात्म के बाजार को समझिए. धर्म के इस बाजार में लोग मोक्ष, सुख, शांति और समृद्धि खरीदने के लिए विंडो शॉपिंग करते हैं. भारत में धर्म का बाजार इस समय 3 लाख 30 हजार करोड़ रुपये का है. ये भारत के मौजूदा रक्षा बजट के लगभग बराबर है और इसका आकार भारत में दवाओं के बाजार से भी बड़ा है. भारत में दवाओं का बाजार 3 लाख 15 हजार करोड़ रुपये का है. धर्म का बाजार इसलिए इतना बड़ा है क्योंकि भारत के 99.99 प्रतिशत लोग किसी न किसी धर्म, संप्रदाय या धार्मिक गुरू को मानते हैं. 2011 के जनगणना के मुताबिक, भारत में नास्तिकों की संख्या सिर्फ 33 हजार है. ये वो लोग हैं जो किसी भी धर्म को नहीं मानते. बाकी के सब लोग किसी न किसी रूप में, किसी न किसी धर्म का पालन जरूर करते हैं.

सांसारिक मोह माया में पड़ने लगे हैं संत

भारत के लोग शादी विवाह के बाद अगर किसी चीज पर सबसे ज्यादा पैसे खर्च करते हैं तो वो धर्म ही है. हिंदू धर्म में मान्यता है कि शादी विवाह जैसे सांसारिक कर्तव्य निभाने के बाद मनुष्य को सबसे ज्यादा समय धर्म को देना चाहिए ताकि मोक्ष की प्राप्ति हो सके. इसमें लोगों की मदद अक्सर धर्म गुरू और आध्यात्मिक गुरू करते हैं. लेकिन कई बार ये धर्म गुरू खुद भौतिक वस्तुओं के लालच में पड़ जाते हैं, या विवादों से घिर जाते हैं. जबकि भारत के साधु संत ही हजारों वर्षों से दुनिया को ये संदेश देते आए हैं कि भौतिक वस्तुओं का जरूरत से ज्यादा संचय नहीं करना चाहिए. लेकिन हाल ही के वर्षों में आपने देखा होगा कि भारत के बहुत सारे साधु संतों और धर्म गुरुओं पर कई तरह के आरोप लग चुके हैं. यानी जिन संत महात्माओं के पास लोग मोक्ष प्राप्त करने के लिए या अपने दुखों के निवारण के लिए जाते हैं वो खुद सांसारिक मोह माया में पड़ने लगे हैं.

मिनी-मालिज्म के साथ आगे बढ़ रहे युवा

हालांकि सुखद बात ये है कि जरूरत से ज्यादा संचय न करने की सोच को अब भारत की युवा पीढ़ी आगे बढ़ा रही है. ये पीढ़ी इस सोच को मिनी-मालिज्म कहती है. भारत में 18 से 40 वर्ष के बहुत सारे युवा अब जरूरत से ज्यादा भौतिक वस्तुओं और सुख सुविधाओं का उपभोग नहीं करना चाहते. क्योंकि इन युवाओं को लगता है कि उनके पास जितनी भौतिक वस्तुएं होंगी जितना अव्यवस्था होगा, उतना ही ज्यादा दुख और तनाव होगा. लेकिन कई बार अध्यात्म को बहुत गराई से समझने का दावा करने वाले लोग भी मिनी-मालिज्म के महत्व को समझ नहीं पाते.

[metaslider id="122584"]
[metaslider id="347522"]