दिसम्बर 2018 में छत्तीसगढ़ में कांग्रेस पार्टी की शानदार विजय हुयी थी. 90 सीटों वाली विधानसभा में कांगेस पार्टी के खाते में 68 सीटें आयी, प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी 15 वर्षों तक सत्ता में रहने के बाद चुनाव हारी थी. शायद कांग्रेस पार्टी को ऐसी एकतरफा जीत की उम्मीद नहीं थी. पार्टी की हालत वैसे ही हो गयी जैसे किसी गरीब की लाटरी निकल आयी हो और वह ख़ुशी में पागल हो जाता है. उन दिनों राहुल गांधी कांग्रेस पार्टी के वाकायदा अध्यक्ष हुआ करते थे, आज की तरह बिना किसी पद और अधिकार के पार्टी नहीं चलाते थे.
पार्टी ने छत्तीसगढ़ में किसी नेता को मुख्यमंत्री पद के लिए प्रोजेक्ट नहीं किया था. मुख्यमंत्री पद के कई उम्मेदवार थे, जिनमे से भूपेश बघेल और टी.एस. सिंह देव दो प्रबल दावेदार थे. राहुल गांधी किसी एक के पक्ष में फैसला नहीं कर पाए और बंदरबांट का फार्मूला पेश किया जिसके तहत पहले ढाई साल बघेल मुख्यमंत्री बने और बाकी के ढाई साल सिंह देव को मुख्यमंत्री बनाने का आश्वासन दे कर राहुल गांधी ने समस्या का ऐसे समाधान कर दिया मानो यह मुख्यमंत्री की कुर्सी नहीं बल्कि बच्चों का कोई खेल हो. 32 महीने पहले राहुल गांधी कोई निर्णय नहीं ले पाए थे और अब भी कोई निर्णय नहीं ले पा रहे हैं, जिसके कारण पार्टी की हालत हास्यास्पद हो गयी है.
छत्तीसगढ़ संकट गहरा रहा है
पिछले चार दिन में राहुल गांधी की छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के साथ दो बार मीटिंग हो चुकी है. पहली बार बैठक मंगलवार को हुयी थी. सिंह देव लगातार राहुल गांधी को उनका 2018 का वादा याद दिला रहे थे. राहुल गांधी ने दोनों नेताओं को नयी दिल्ली बुलाया, अलग अलग दोनों से मिले. सिंह देव दिल्ली में ही रहे और दबाब बनाते रहे और बघेल वापस रायपुर जा कर अपने विजय का नगाड़ा बजाने लगे. शुक्रवार को उन्हें दुबारा दिल्ली तलब किया गया. लगा अब शायद छत्तीसगढ़ का मसला सुलझ जाएगा. बैठक राहुल गांधी के बंगले पर हुयी जहां उनकी बहन और पार्टी की राष्ट्रीय महासचिव प्रियंका गाँधी, पार्टी के संगठन महासचिव के.सी. वेणुगोपाल और प्रदेश के प्रभारी पी.एल. पुनिया भी मौजूद थे. तीन घंटे तक बैठक चली जिसके बाद पुनिया ने कहा कि मीटिंग में छत्तीसगढ़ सरकार की परियाजनाओं पर चर्चा हुयी, ना कि नेतृत्व परिवर्तन पर. क्या खूब. पर पुनिया जी ज़रा यह भी बता दें कि बघेल के संग 40 विधायक और प्रदेश इकाई के कई पदाधिकारी क्या दिल्ली भ्रमण करने आये थे या शक्ति प्रदर्शन करने? लगता है कि राहुल गांधी अभी भी इस विषय पर गहन चिंतन कर रहे हैं और कोई फैसला नहीं लिया है. अगर बघेल की माने तो अगले सप्ताह राहुल गांधी उनके आमंत्रण पर छत्तीसगढ़ आएंगे.
पिछले पांच वर्षों में कांग्रेस पार्टी की हालत कहीं ज्यादा पस्त हुई है
कांग्रेस पार्टी तीन राज्यों के सत्ता में है और तीनों ही राज्यों में घमासान मचा हुआ है. पिछले वर्ष मध्य प्रदेश में कांग्रेस पार्टी की सरकार गिर गयी. इन चारों राज्यों में राहुल गांधी की सही समय पर सही निर्णय नहीं लेने की क्षमता का सीधा असर हुआ. मध्य प्रदेश में भी नेतृत्व के ऊपर मतभेद था. राहुल गांधी ने सोचा की कमलनाथ को मुख्यमंत्री और ज्योतिरादित्य सिंधिया को पार्टी का राष्ट्रीय महासचिव बना कर उन्होंने समस्या का समाधान कर दिया. प्रदेश में 15 महीनों तक ही कांगेस की सरकार चल पायी और सिंधिया ने विद्रोह कर दिया, पार्टी का विभाजन हो गया और वह बीजेपी में शामिल हो गए. प्रदेश में बीजेपी की सरकार बन गयी.
2018 में जिन तीन राज्यों में कांग्रेस चुनाव जीतने में सफल रही थी उसमें तीसरा राज्य राजस्थान था. वहां भी छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश की तरह नेतृव के ऊपर विवाद था. राहुल गाँधी ने अशोक गहलोत को मुख्यमंत्री बनाया और सचिन पायलट, जिसके अथक प्रयासों के कारण प्रदेश में कांग्रेस की जीत हुयी थी, उन्हें उपमुख्यमंत्री बना दिया. उन्होंने सोचा कि समस्या का समाधान कर दिया. राजस्थान में जंग जारी है और गहलोत राहुल गांधी के बार बार प्रयासों के बाबजूद भी पायलट और उनके समर्थकों की अनदेखी कर रहे हैं. प्रदेश कांग्रेस में ज्वालामुखी कभी भी फट सकता है.
पंजाब की हालत सबसे दयनीय
पंजाब की हालत सबसे दयनीय है, कारण है प्रदेश में लगभग पांच महीनों में विधानसभा चुनाव होने वाला है. 2017 के चुनाव के ठीक पहले बीजेपी छोड़ कर नवजोत सिंध सिद्धू कांगेस पार्टी में शामिल हुए थे. राहुल गाँधी सिद्धू को अमरिंदर सिंह के मुकाबले बड़ा नेता और पार्टी का भविष्य बनाना चाहते थे. अमरिंदर सिंह मुख्यमंत्री बने और सिद्धू मंत्री. दोनों की बनी नहीं. सिद्धू ने ढाई साल पहले मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया और अमरिंदर सिंह के आलोचकों के मुखिया बन गए. और अब जब कि चुनाव होने वाला है सिद्धू ने बगावती तेवर अपना लिए थे जिसके कारण राहुल गांधी ने सिद्धू को प्रदेश इकाई का अध्यक्ष बना दिया, सोचा कि पंजाब समस्या का हल हो गया है. पर हुआ ठीक इसके विपरीत. सिद्धू और सिंह के बीच जंग अभी भी जारी है. सिद्धू चुनाव के पहले सिंह को मुख्यमंत्री पद से हटाना चाहते हैं. सवाल है कि समय रहते राहुल गांधी ने सिद्धू के बारे में निर्णय क्यों नहीं लिया. जब सिद्धू ने मंत्रीमंडल से इस्तीफा दिया था तब भी वह सिद्धू को प्रदेश इकाई अध्यक्ष बना सकते थे. जबकि सभी को पता है कि अगर कोई कांग्रेस पार्टी को लगातार दूसरी बार चुनाव जितवा सकता है तो वह अमरिंदर सिंह ही हैं. पर चुनाव के ठीक पहले राहुल गांधी ने सिद्धू को सिंह के सर पर बैठा कर पार्टी की हार का फार्मूला बना लिया. पंजाब में सिंह और सिद्धू पार्टी की जीत की तैयारी करने की जगह एक दूसरे को पटकने की तैयारी में लगे हैं.
सही समय पर निर्णय न लेना है कमजोरी
इन चारों राज्यों में वर्तमान स्थिति में राहुल गांधी का अमूल्य योगदान रहा है. यह कहना गलत होगा कि सही समय पर सही निर्णय नहीं लेने की क्षमता उन्हें विरासत में मिली है. पर यह भी सत्य है कि आज कश्मीर में हो भी हो रहा है उसमे राहुल गांधी के परदादा जवाहरलाल नेहरु द्वारा सही समय पर सही निर्णय नहीं लेने का खामियाजा आज भी भारत भुगत रहा है और अब राहुल गांधी की इसी गुण की सजा कांग्रेस पार्टी को मिल रही है.
सिर्फ बड़े खानदान में पैसा होने से ही कोई बड़ा नेता नहीं बन जाता है, राहुल गांधी इसका जीता जगता प्रमाण हैं. अगर किसी में नेता बनने की क्षमता का आभाव हो और पार्टी चलाने की जिम्मेदारी उसे दे दी जाए तो फिर वही होता है जो फिलहाल कांग्रेस पार्टी में हो रहा है. कांग्रेस पार्टी की पस्त हालत में लिए बीजेपी से ज्यादा खुद कांग्रेस पार्टी ही जिम्मेदार है. पता सभी को है कि राहुल गांधी में वह गुण या प्रतिभा नहीं है कि वह पार्टी को पुनर्जीवित कर पाए, बस सवाल है है कि आखिर बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे?
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