जलवायु वित्तपोषण के लिए भारतीय CSR मॉडल का उपयोग

रामनाथ वैद्यनाथनएवीपी और एनवायरनमेंट हेड– गोदरेज इंडस्ट्रीज लिमिटेड और एसोसिएट कंपनीज़

जलवायु संकट कहीं दूर नहीं मंडरा रहा है, यह हमारे घर के दरवाजे पर खड़ा है और दस्तक दे रहा है। दूसरे शब्दों में हम एक ऐसे युग में हैं जहां हमारे कर्मों का नतीजा साफतौर पर दिख रहा है। हमें इस संकट को जल्द से जल्द टालना होगा लेकिन एक बड़ा सवाल है कि इसपर होने वाले भारी खर्च का भुगतान कौन करेगा?

जलवायु परिवर्तन के शमन और अनुकूलन के लिए निस्संदेह भारी निवेश की आवश्यकता होगी। अनुमान है कि 2050 तक, दुनिया भर की सरकारों और निजी क्षेत्र को ऊर्जा संक्रमण के लिए 131 ट्रिलियन डॉलर के निवेश की आवश्यकता करनी होगी। अकेले भारत का कम कार्बन संक्रमण और जलवायु लचीले बुनियादी ढांचे के निर्माण की दिशा में निवेश 2050 तक 7.2 ट्रिलियन डॉलर से 12.1 ट्रिलियन डॉलर तक होने का अनुमान है। मुख्य सवाल यह है कि क्या भारत (और विकासशील दुनिया के अन्य देशों को भी, जिनका प्रति व्यक्ति उत्सर्जन कम है) को भी इस संक्रमण के लिए भुगतान करना चाहिए?

शुरुआत से ही यह महत्वपूर्ण है कि विकसित देश 2009 में सीओपी 15 (यूएनएफसीसीसी, कोपेनहेगन) में किए गए अपने शब्दों और प्रतिबद्धताओं के प्रति सच्चे रहें और डीकार्बोनाइजेशन के लिए जो धन देने का वादा किया है, वह पूरा करें। विसंगति कहें या पारदर्शिता की कमी कहें या सीधे तौर पर कहें कि विकसित देशों की ओर से विकासशील देशों को कार्बन उत्सर्जन घटाने में मदद करने के लिए जो धन मिलना था, वह नहीं मिला है। प्रतिबद्धताएं दशकों पहले की गई थीं, लेकिन धन का प्रवाह नाम मात्र का है। ऐसा इसलिए नहीं है कि उनके पास पूंजी की कमी है, बल्कि इसलिए है क्योंकि डीकार्बोनाइजेशन को वे प्राथमिकता कम दे रहे हैं। थोड़े समय के लिए प्रतिबद्धता दिखाना मूर्खतापूर्ण है, जवाबदेही और धन के सही उपयोग को सुनिश्चित करने के लिए किश्तों में भुगतान करना आवश्यक है।

इसके अलावा, यह भी महत्वपूर्ण है कि ये धनराशि पूरी तरह से कर्ज के रूप में नहीं दी जाए ताकि विकासशील देश इसे चुकाने के अंतहीन चक्र में नहीं फंसे और उनकी संप्रभुता गिरवी न रख दी जाए। इस राशि का एक बड़ा हिस्सा अनुदान और सहायता के रूप में दिया जाना चाहिए। यह कोई छिपी हुई बात नहीं है कि विकसित देश जो आज अपनी समृद्धि पर इठला रहे हैं, वह विकासशील देशों के पर्यावरणीय, आर्थिक और सामाजिक शोषण से बनी है। उनके लिए यह कहना कि वे अब ब्याज के रूप में अधिक आय कमाने के लिए अपनी संपत्ति में से कुछ को विकसित देशों को ऋण के रूप में देने को तैयार हैं, न केवल अनुचित है, बल्कि विचित्र भी है। कोई कारण नहीं है कि प्रति व्यक्ति उत्सर्जन के अनुसार जिम्मेदारियों के बंटवारे के साथ ‘प्रदूषक भुगतान करता है’ सिद्धांत यहां लागू नहीं होना चाहिए।

इसके बाद यह देखना भी महत्वपूर्ण होगा है कि इन फंडों का उपयोग कैसे किया जाता है और प्रगति की पारदर्शी निगरानी के लिए एक उचित शासन तंत्र है कि नहीं। आम धारणा यह है कि विकासशील देशों में भ्रष्टाचार की संभावना अधिक होती है और इसलिए वे धन का कुशलतापूर्वक उपयोग नहीं करेंगे। हालांकि, हमें इस संरक्षणवादी रवैये से छुटकारा पाने की जरूरत है, मैं एक व्यापक निगरानी और शासन तंत्र की आवश्यकता का पूरी तरह से समर्थन करता हूं जो वैश्विक, समावेशी और यथासंभव पूर्वाग्रह से मुक्त हो। भारतीय सीएसआर मॉडल अनुकरण के लिए एक बेहतरीन उदाहरण है, जहां बजट, परिणाम, माइलस्टोन, ऑडिट और उपयोग को अनिवार्य अनुपालन के रूप में बनाया गया है।

ये लक्ष्य, किश्तें और माइलस्टोन भी विशेष रूप से देश-विशिष्ट होने चाहिए, जो विकास के स्तर, जनसंख्या और राजकोषीय स्थिति पर आधारित हों। उदाहरण के लिए, भारत में कृषि उत्सर्जन में सबसे बड़े योगदानकर्ताओं में से एक है, इसलिए इस क्षेत्र में परियोजनाओं को प्राथमिकता दी जाएगी, लेकिन इंडोनेशिया के लिए, यह जीवाश्म उत्पादन से नवीकरणीय ऊर्जा हो सकता है। इसलिए देश सैद्धांतिक रूप से लक्ष्य और उन्हें प्राप्त करने के लिए समयसीमा और रणनीतियों के साथ अपने वित्तपोषण अनुरोध प्रस्तुत कर सकते हैं। एक वैश्विक निगरानी एजेंसी (वर्तमान वित्तीय पारिस्थितिकी तंत्र के बाहर बनाई गई) तब धन वितरित कर सकती है और प्रगति की निगरानी कर सकती है।

फिर ऐसे लोग होंगे जो निजी वित्त और कॉरपोरेट्स से मांग करेंगे कि इसका उपयोग मुख्य रूप से जलवायु वित्तपोषण अंतर को पाटने के लिए कैसे किया जाना चाहिए। जबकि निजी वित्त के लिए जलवायु जोखिम शमन में इसके उपयोग का विस्तार करने की गुंजाइश है, कंपनियां पहले से ही न केवल अपने परिचालन प्रभावों को कम करने के लिए महत्वपूर्ण निवेश कर रही हैं, बल्कि अपनी वैल्यू चेन के साथ-साथ जलवायु लचीलेपन और अनुकूलन की दिशा में अपनी सस्टेनेबिलिटी सप्लाई चेन प्रतिबद्धताओं का हिस्सा भी बढ़ा रही हैं। उनसे जलवायु परिवर्तन के वित्तपोषण का पूरा बोझ उठाने की अपेक्षा करना उन कंपनियों और अर्थव्यवस्थाओं के लिए विनाशकारी होगा जिसमें वे काम करते हैं।

लब्बोलुआब यह है कि यदि दुनिया के राष्ट्र जलवायु आपातकाल को हल करने के लिए किए गए वादे को पूरा करने में विफल रहते हैं, तो वे आने वाली पीढ़ियों और इस धरती को धोखा दे रहे हैं। विकसित दुनिया यह दिखावा नहीं कर सकती कि उनकी जिम्मेदारी का बोझ विकासशील देश भी समान रूप से उठाए। आगे बढ़ें और वही करें जो नैतिकता की दृष्टि से सही हो। संयुक्त राष्ट्र ने स्पष्ट रूप से कहा है कि जलवायु वित्त के लिए वार्षिक 100 अरब डॉलर की प्रतिबद्धता, ‘एक मंजिल है न कि कोई सीमा।’ हम उस चरण से आगे निकल चुके हैं जहां जलवायु वित्त को लेकर बहस की जाए बल्कि समय आ गया है कि हमें तुरंत निवेश शुरू करना होगा। यह दशक एक निर्णायक मोड़ है हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि यह मोड़ हमें एक स्थायी व न्यायसंगत भविष्य की ओर लेकर जाने वाला हो।

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