जम्मू-कश्मीर का बिना शर्त विलय, SC की संविधान पीठ ने की अहम टिप्पणी

नई दिल्ली । सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने अपनी बेहद अहम टिप्पणी में कहा कि भारत के समक्ष पूर्व रियासत जम्मू और कश्मीर की संप्रभुता का समर्पण अक्टूबर, 1947 में बिना किसी शर्त के पूरी तरह से किया गया था। इसलिए यह कहना ‘वास्तव में कठिन’ है कि राज्य को विशेष रूप से स्वायत्तता देने वाला अनुच्छेद 370 स्थायी प्रकृति का था। मामले में अगली सुनवाई 16 अगस्त को है।

पांच जजों की संविधान पीठ ने क्या कहा?

प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता में पांच जजों की संविधान पीठ का मानना है कि संविधान के अनुच्छेद एक में कहा गया है कि जम्मू और कश्मीर समेत भारत विभिन्न राज्यों का संघ है। ऐसा इसलिए है क्योंकि सभी मायनों में संप्रभुता का पूर्ण हस्तांतरण हुआ था। भारतीय संविधान की अनुसूची एक में राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के नामों की सूची है। इस सूची में जम्मू और कश्मीर समेत इन सभी की सीमा और क्षेत्राधिकार निहित हैं। संविधान पीठ में शामिल जस्टिस संजय किशन कौल, संजीव खन्ना, बीआर गवई और सूर्यकांत का कहना है कि ऐसा कतई नहीं कहा जा सकता है कि अनुच्छेद 370 लागू करने के बाद जम्मू और कश्मीर में संप्रभुता के कुछ तत्वों को बनाए रखा गया था।

प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने क्या कहा?

प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने स्पष्ट किया कि भारत के साथ जम्मू और कश्मीर के विलय में कोई शर्त नहीं लगाई गई थी। भारत में इस राज्य की संप्रभुता का समर्पण पूरी तरह से किया गया था और जब राज्य की संप्रभुता को पूरी तरह से भारत में विलीन कर दिया गया था तो इसलिए (राज्य से संबंधित) किसी भी कानून के गठन का अधिकार संसद के पास ही रहता है। हम अनुच्छेद 370 को ऐसे दस्तावेज के रूप में नहीं देख सकते कि जो जम्मू और कश्मीर की संप्रभुता के कुछ अंश को बनाए रख सकता है।

370 हटाने का विरोध करने वाले याचिकाकर्ताओं का क्या है दलील?

उल्लेखनीय है कि 370 हटाने का विरोध करने वाले याचिकाकर्ताओं की दलील है कि विलय पत्र के अनुसार भारत सरकार को राज्य से संबंधित रक्षा, संचार और विदेश मामले ही देखने का अख्तियार था। जम्मू-कश्मीर हाई कोर्ट बार एसोसिएशन की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता जफर शाह ने कहा कि संवैधानिक रूप से केंद्र सरकार या राष्ट्रपति के पास जम्मू-कश्मीर के लिए कोई कानून बनाने का अधिकार ही नहीं है।

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