महिला सशक्तिकरण के लिए समर्पित था सावित्रीबाई का जीवन, सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ उठाई आवाज

आज 03 जनवरी को देश की पहली महिला शिक्षक और समाज सेविका सावित्रीबाई फुले की जयंती मनाई जा रही है। 3 जनवरी 1831 को सावित्रीबाई फुले का जन्म महाराष्ट्र के सतारा जिले के नायगांव में हुआ था। इनके पिता का नाम खन्दोजी नैवेसे तथा माता का नाम लक्ष्मी था। ज्यादा समय वह अपने पिता के घर में नहीं रहीं। परिजनों ने सावित्रीबाई फुले की शादी महज 09 साल की उम्र में कर दी थी। जब सावित्रीबाई की शादी हुई थी, उस समय वह पढ़ना-लिखना नहीं जानती थी। उनके पति ज्योतिराव फुले सावित्रीबाई से 04 वर्ष बड़े थे। ज्योतिराव फुले चाहते थे कि उनकी पत्नी भी पढ़े-लिखे, इसलिए उन्होंने सावित्रीबाई का पढ़ाई के प्रति उत्साह बढ़ाया।

ज्योतिराव फुले भी शादी के दौरान कक्षा तीन के छात्र थे, लेकिन तमाम सामाजिक बुराइयों की परवाह किए बिना सावित्रीबाई की पढ़ाई में पूरी मदद की। जिन दिनों वह लोगों के मिथक को तोड़ने के लिए जूझ रही थी, लोग उसे कोरी कल्पना ही समझ रहे थे, लेकिन धीरे-धीरे साबित हो गया कि सावित्रीबाई फुले ने जीया तो औरों के लिए। सावित्रीबाई फुले जिस मिशन को लेकर निकलीं थीं, आज हमारी केंद्र सरकार उसे आगे बढ़ा रही है। प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए गठबंधन उस धारा में काम कर रहा है, जिसकी सदैव प्रशंसा होती रहेगी।

सावित्रीबाई फुले ने पति के कहने पर पढ़ाई का मन बनाया और स्कूल जाने लगीं। यह उनके लिए बड़ा कठिन दौर था। जब वह स्कूल जाती थीं, लोग उन पर अभद्र टिप्पणी करते तथा कीचड़ फेंकते थे। सावित्रीबाई को स्कूल जाते समय चोटें भी आईं। कुछ लोग नहीं चाहते थे कि वह पढ़ाई करें, इसलिए सावित्रीबाई के स्कूल जाते समय उन पर कंकड़-पत्थर फेंकते थे। उस समय देश में छुआ-छूत, सती प्रथा, बाल-विवाह और विधवा विवाह जैसी कुरीतियां हावी थीं। सावित्रीबाई का सवाल था कि आखिर महिलाओं को अनावश्यक इतना संघर्ष क्यों करना पड़ता है? उन्होंने खुद संकल्प किया कि वह महिलाओं के कल्याण के लिए जीवन रहने तक सामाजिक कुरीतियों से लड़ती रहेंगी।

इसके लिए उन्होंने सबसे पहले पढ़ाई में मन लगाया और कड़ी मेहतन की। सावित्री ने अपने पिता को भी एक दिन कहा था कि सावित्रीबाई एक दिन पढ़-लिखकर भी दिखााएगी। उनके पिता कहते थे कि पढ़ाई सिर्फ ऊंची जातियों के लिए है। वह धीरे-धीरे अपना मुकान हासिल करने लगीं। सावित्रीबाई फुले के संकल्प से तमाम महिलाओं की कई बाधाएं भी दूर होने लगीं। एक दिन ऐसा भी आया, जबकि वह देश की पहली महिला शिक्षक बनीं। इससे हजारों लोगों की आंखें खुलीं और बालिकाओं को स्कूल भेजने लगीं। उन्होंने लड़कियों की पढ़ाई के लिए एक के बाद एक कुल 18 स्कूलों का निर्माण कराया। उनके अथक प्रयासों से ही 1848 में महाराष्ट्र के पुणे में बालिका स्कूल की स्थापना की कई। इसे देश का पहला महिला स्कूल होने का गौरव मिला। वह शिक्षक के साथ समाज सुधारक भी थीं।

सावित्रीबाई दलित महिलाओं के उत्थान तथा छुआछूत के खिलाफ आवाज उठाने में कभी डरी नहीं। कई बार एक बड़ा वर्ग उनके खिलाफ खड़ा हो जाता था। जब वह घर के पास बने कुएं में पानी भरने के लिए जाती थीं, तो एक वर्ग का काफी विरोध करना पड़ता था। यह विरोध कितने दिन सहा जाता, इसीलिए उन्होंने अपने पति को अपने काम में सहभागी बनाया और एक कुआं भी खोद डाला। उन्होंने यह काम कर नेतृत्व की एक नजीर बनीं। वह केवल जातिगत कुरीतियों का ही नहीं, बल्कि समस्त महिलाओं पर हो रहे अत्याचार व अन्याय के खिलाफ डटकर मुकाबला करती थीं। यह 1854 की बात है, जब उनसे विधवाओं की दुर्दशा देखी न गई। निराश्रित महिलाओं के लिए उन्होंने एक आश्रम खोला। उस समय महिलाओं की स्थिति बहुत दयनीय थी। सावित्री बाई ने सैकड़ों निराश्रित महिलाओं, विधवाओं और उन बाल बहुओं के आंसू पोछे, जिनको उनके परिवार वालों ने ही बेघर कर दिया था। उनके पास सभी के प्रति सम्मान था। वह समान भाव से सभी को पढ़ाती-लिखाती थीं। सावित्रीबाई फुले भारत के नारी मुक्ति आंदोलन की पहली नेता भी बनीं। वह हमेशा लक्ष्य बनाकर चलती थीं। सावित्रीबाई को भले ही किसी वर्ग का विरोध करना पड़ा, लेकिन उन्होंने किसी को दुख पहुंचाने वाला काम नहीं किया। उनके आश्रय में सभी महिलाएं सम्मानित थीं।

बताया जाता है कि एक दिन उनका ऐसी महिला से सामना हुआ जो आत्महत्या करने जा रही थी। वह महिला एक विधवा ब्राह्मण थी। वह गर्भवती भी थी। जब इसकी जानकारी सावित्रीबाई को हुई तो उन्होंने महिला को काफी समझाया और लोकलाज से मुक्त कर अपने आश्रय ले गई। यही महिला काशीबाई थी। सावित्रीबाई ने काशीबाई के बच्चे का नाम यशवंत रखा और उसे अपना दत्तक पुत्र बना लिया। पढ़ना और पढ़ाना तो सावित्री के संस्कार थे, इसलिए यशवंत भी पढ़-लिखकर एक दिन डॉक्टर बन गया।

उन्होंने अंतरजातीय विवाह को भी बढ़ावा देने के लिए कई कदम उठाए। उनका पूरा जीवन समाज के लिए संघर्ष करते हुए बीता। 1890 में सावित्रीबाई के पति ज्योतिराव का निधन हो गया। यहां भी उन्होंने सामाजिक नियमों को किनारे कर पति की चिता को अग्नि दी। सेवाभाव तो सावित्रीबाई की रगों में भरा था। 1897 में जब पूरे महाराष्ट्र में प्लेग फैला था, तब भी वह लोगों की मदद में लगी थीं। इतिहास में इस बात का उल्लेख है कि प्लेग की शिकार होने के कारण ही 10 मार्च 1897 को सावित्रीबाई की मौत हुई। उनका यह बलिदान कभी भुलाया नहीं जा सकता है।

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