– सीमा
मेरी दोस्त पिछले कुछ दिनों से थोड़ा अजीब-सा व्यवहार कर रही थी। छोटी-छोटी बातों पर चिड़-चिड़ करने लगती थी। और फिर अपनी बेमतलब चिड़चिड़ाहट पर खुद ही परेशान हो जाती थी।
मेनोपॉज या रजोनिवृति महिलाओं के प्रजनन चक्र से जुड़ा मामला है। आम तौर पर किसी लड़की को 12-15 की आयु में मासिक स्राव शुरू होता है और यह अमूमन 45-50 की उम्र तक चलता है। मेनोपॉज़ का मतलब होता है मासिक स्राव का बंद हो जाना। यह कोई बीमारी नहीं है बल्कि जीवन के एक नए चरण की शुरुआत है।
वास्तव में जन्म के समय ही किसी लड़की के अंडाशय में लाखों अंडाणु होते हैं। लगभग 12-13 वर्ष की उम्र में ये अंडाणु परिपक्व होना शुरू करते हैं। प्रति माह एक अंडाणु (कभी-कभी दो) परिपक्व होकर अंडाशय से निकलता है। इसका नियंत्रण एस्ट्रोजेन नामक हार्मोन करता है। एक अन्य हार्मोन प्रोजेस्टेरोन महिला के शरीर को गर्भावस्था के लिए तैयार करता है। प्रोजेस्टरोन के प्रभाव से गर्भाशय की दीवार पर रक्त वाहिनियों का एक अस्तर बनता है। यदि अंडे का निषेचन होकर गर्भ नहीं ठहरता तो यह अस्तर झड़ जाता है। यही खून मासिक स्राव के रूप में बहता है। और इसे मासिक धर्म कहते हैं।
समय के साथ धीरे-धीरे महिलाओं के अंडाशय एस्ट्रोजन और प्रोजेस्टेरोन का उत्पादन कम करने लगते हैं – इसे पेरिमेनोपॉज़ अवस्था कहते हैं। और जब इन हार्मोन्स का उत्पादन पूरी तरह समाप्त हो जाता है तब मासिक स्राव पूरी तरह बंद हो जाते हैं। यही मेनोपॉज़ है।
काफी पूछने पर उसने बताया कि पिछले कुछेक महीनों से उसके पीरियड नियमित नहीं आ रहे हैं। 2-3 महीने में एक बार आते हैं और फिर जब आते हैं तो 15-15 दिनों तक रहते हैं। खून भी काफी जाता है। “बहुत जल्दी थक जाती हूं और बिना किसी बात के चिढ़ने लगती हूं। मेरे साथ ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। मेरे पीरियड तो बहुत आराम से हो जाते थे। किंतु अब…”
मैंने उसे बीच में ही रोककर पूछा, “तुमने किसी डॉक्टर से बात की?”
“नहीं, उसकी क्या ज़रूरत है, कुछ हुआ थोड़ी ना है।”
“तो और क्या होने का इंतज़ार कर रही हो… हम आज शाम ही डॉक्टर से मिलने चलेंगे।”
डॉक्टर साहिबा ने तो सवालों की झड़ी ही लगा दी – ऐसा कब से हो रहा है, और क्या-क्या परेशानियां होती है, डायबिटीज़ तो नहीं है, बीपी तो नहीं है, शादी हुई, बच्चे हैं क्या, तुम्हारी क्या उम्र होगी, जो तुम्हारे साथ आई हैं वे आपकी कौन हैं, वगैरह-वगैरह।
सब कुछ जान लेने के बाद उन्होंने मेरी दोस्त को सोनोग्राफी कराकर आने को कह दिया। सोनोग्राफी में निकलकर आया कि अंडाशय नीचे आ गए हैं यानी मेनोपॉज़ (रजोनिवृत्ति) की शुरुआत हो गई है।
सोनोग्राफी की रिपोर्ट देखकर डॉक्टर साहिबा थोड़ी परेशान हो गईं, “अभी तो आप 40 की ही हुई हो, आपको बच्चे भी तो चाहिए होंगे। मैं ऐसा करती हूं आपको हार्मोनल गोलियां लिख देती हूं। नॉर्मल पीरियड आने लगेंगे, चिंता की कोई बात नहीं है।”
हार्मोनल गोलियां खाने की बात सुनकर मेरी दोस्त थोड़ा घबरा गई। दवाई से तो वह हमेशा बचने की कोशिश करती थी। उसने डॉक्टर से कहा, “अरे, नहीं, नहीं, मुझे बच्चे नहीं चाहिए। मेरे पीरियड जल्दी शुरू हुए थे इसलिए मेनोपॉज़ भी जल्दी शुरू हो गया होगा। हार्मोनल गोलियां मत लिखिए।”
“पीरियड जल्दी शुरू हो गए थे, उससे क्या होता है? पीरियड जल्दी शुरू हुए थे इसलिए मेनोपॉज़ भी जल्दी होगा ऐसा कोई नियम नहीं है। क्या तुम्हारी मां या बहन को भी इसी उम्र में मेनोपॉज़ शुरू हो गया था?”
डॉक्टर साहिबा के इस सवाल का मेरी दोस्त के पास कोई जवाब नहीं था। उसने कहा कि इस विषय पर उसकी अपनी मां या बहन से कभी कोई बातचीत ही नहीं हुई। पीरियड शुरू होने पर मां ने यह ज़रूर बताया था कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं किंतु खुद अपने पीरियड के सम्बंध में उन्हें कभी किसी से बात करते नहीं सुना।
ठीक है तो अब पूछ लेना
चूंकि सोनोग्राफी में कुछ गड़बड़ नहीं निकली थी इसलिए मेरी दोस्त तो डॉक्टर साहिबा के साथ हुई बातचीत को भूल ही गई, मैं भी भूल गई। फिर कुछ महीनों बाद मुझे मेनोपॉज़ के बारे में एक लेख पढ़ने को मिला मेनोपॉज़ अकादमिक कार्यस्थल पर क्या महत्व रखता है । इस लेख में बताया गया था कि मेनोपॉज़ के दौरान औरतें किन-किन परेशानियों से गुज़रती हैं, मेनोपॉज़ से गुज़र रही औरतों के लिए काम की जगह को कैसे फ्रेंडली बनाया जा सकता है, वगैरह-वगैरह। इस लेख को पढ़ते हुए मुझे मेरी दोस्त व डॉक्टर साहिबा की बातचीत याद आ गई – उन्होंने मेरी दोस्त से कितने तो सवालात किए पर मेनोपॉज़ में किस-किस तरह की परेशानियां आ सकती हैं, उसका एक मर्तबा भी ज़िक्र नहीं किया।
इस लेख को पढ़ने से पहले मुझे भी एहसास नहीं था कि मेनोपॉज़-पूर्व (पेरि-मेनोपॉज़) से गुज़र रही महिलाओं को इतनी तकलीफें होती हैं। कभी मां, बहन या किसी दोस्त ने अपने अनुभव साझा ही नहीं किए और न ही इस बारे में कहीं कुछ पढ़ने को मिला। वर्कशॉप में या दोस्तों से बातचीत के दौरान माहवारी के अनुभवों पर तो काफी बातें हुईं लेकिन माहवारी समाप्त होने (मेनोपॉज़) पर चर्चा करने का कभी कोई मौका नहीं मिला। और वहीं से यह लेख लिखने का ख्याल पनपा ताकि लोग इस प्रक्रिया को समझ सकें और संवेदनशील हो सकें व खुद के साथ-साथ दूसरों को भी जागरूक कर सकें।
मेनोपॉज़ को लेकर कई तरह की भ्रांतियां हैं; जैसे, मेनोपॉज़ शुरू होने के बाद महिलाओं को सेक्स करने की इच्छा नहीं होती, वो एक तरह से बुढ़ा जाती हैं, चीज़ें भूलने लगती हैं, आदि-आदि।
अमूमन मेनोपॉज़ 45 से 55 की उम्र के बीच शुरू होता है। इस प्रक्रिया के दौरान अंडाशयों से निकलने वाले सेक्स हॉर्मोन्स में कमी आने लगती है और इस वजह से पीरियड अनियमित हो जाते हैं। आपको कई तरह के शारीरिक, मानसिक व भावनात्मक बदलाव महसूस होते हैं।
इस उम्र में अधिकतर महिलाएं अपने करियर के ऊंचे पड़ाव या नेतृत्व की भूमिका में होती हैं। काम की अधिकतर जगहों पर मेनोपॉज़ – और उस वक्त होने वाले शारीरिक, मानसिक व भावनात्मक बदलाव – को इस तरह से नहीं देखा जाता कि उसके लिए कोई सपोर्ट सिस्टम निर्मित किया जाए। और महिलाएं भी इस डर से कुछ नहीं बोलतीं कि उन पर आलसी होने, बहानेबाज़ी या अकेले काम न कर पाने, समस्या खड़ी कर देने वाली का ठप्पा लगा दिया जाएगा। कुछ बोलने की बजाय वे छुट्टियां लेकर घर में वक्त बिताना पसंद करती हैं। कभी-कभी नौकरी छोड़ देती हैं या फिर प्रमोशन नहीं लेतीं।
मज़दूर तबके की औरतों या घरेलू कामगार महिलाओं के पास तो ये सुविधाएं भी नहीं होतीं। अगर छुट्टी ली तो उन्हें तो काम से ही हाथ धोना पड़ जाएगा। और इस वजह से सिर्फ महिलाएं ही मुश्किलें नहीं झेल रही होतीं बल्कि संस्थान भी एक सीनियर महिला के अनुभवों से महरूम रह जाते हैं।
मेनोपॉज़ शुरू होने पर या सही शब्दों में कहें तो पेरि-मेनोपॉज़ के दौरान जब आप डॉक्टर से सलाह लेने पहुंचती हैं तो वे भी सिर्फ कैल्शियम की गोलियां और खान-खुराक की ही बात करते हैं, या ज़्यादा हुआ तो परिवार की हिस्ट्री जानकर सोनोग्राफी कराने की सलाह देते हैं। लेकिन इस बारे में कोई बात नहीं करते कि उस दौरान सेक्स हार्मोन में कमी आने से किस तरह की शारीरिक या मानसिक दिक्कतें हो सकती हैं, जैसे – मूड में उतार-चढ़ाव, एकदम से गर्मी लगने लगना या पसीना आना वगैरह।
दफ्तर में साथ काम करने वाले लोगों या घर के लोगों को कोई अंदाज़ा ही नहीं होता कि औरतें किस परिस्थिति से गुज़र रही हैं, और ऐसे में हम उनकी तकलीफों को और बढ़ा देते हैं। हम यह तो कहते हैं कि आजकल मैडम बहुत चिड़चिड़ी हो गई हैं और छोटी-छोटी बात पर भड़क जाती हैं लेकिन ऐसा क्यों हो रहा है कभी जानने-समझने की कोशिश नहीं करते।
मेनोपॉज़ उन व्यक्तियों के लिए ज़िंदगी की एक प्राकृतिक अवस्था है जिनको अंडाशय व गर्भाशय होते हैं और जिनको माहवारी होती है। जैसे कि औरतें, कुछ ट्रांसजेंडर आदमी, नॉन-बाइनरी लोग।
अगर किसी व्यक्ति को लगातार एक साल तक पीरियड नहीं आएं तो कहा जा सकता है कि मेनोपॉज़ हो गया है। लेकिन मेनोपॉज़ तक पहुंचने के दौरान जो शारीरिक, मानसिक व भावनात्मक बदलाव होते हैं उनको पेरि-मेनोपॉज़ अवस्था कहा जाता है। इसमें अंडाशय से निकलने वाले एस्ट्रोजन व प्रोजेस्टेरोन हार्मोन की मात्रा कम होने लगती है। पेरि-मेनोपॉज़ अवस्था कई सालों तक रह सकती है। इसमें अनियमित या अत्यधिक रक्तस्राव, मूड में उतार-चढ़ाव होना, नींद आने में दिक्कत, अचानक गर्मी लगना या पसीना आना (hot flushes), भूलने लगना, योनि में सूखापन, वज़न बढ़ना, डिप्रेशन, सेक्स करने की इच्छा न होना आदि लक्षण होते हैं। इसके अलावा, कुछ स्वास्थ्य सम्बंधी दिक्कतें जैसे – अस्थिछिद्रता, हृदय रोग भी हो सकते हैं।
दुनिया भर में कार्यस्थलों पर मेनोपॉज़ के अनुभवों को लेकर जानकारी बहुत कम ही है। 2015 में Menopause में प्रकाशित हुई यूएस की एक स्टडी में बताया गया था कि हॉट फ्लशेज़ (शरीर के ऊपरी हिस्से में अचानक गर्मी महसूस होना) और रात में पसीना आना (नाइट स्वेट्स) की वजह से ऐसी औरतों ने अन्य औरतों की तुलना में 60 फीसदी ज़्यादा काम के दिन गंवाए हैं। लंदन में जेंडर-बराबरी पर काम करने वाले संगठन फॉसिट सोसाइटी की 2021 की रिपोर्ट बताती है कि मेनोपॉज़ से गुज़र रहीं आधी से ज़्यादा औरतों और ट्रांसजेंडर आदमियों ने इस दौरान होने वाली परेशानियों की वजह से प्रमोशन के लिए एप्लाई नहीं किया।
ऑस्ट्रेलिया में, स्वास्थ्य व उच्च शिक्षा के क्षेत्र में काम कर रही मेनोपॉज़ से गुज़र रही औरतों के एक सर्वे में पता चला था कि कई औरतें ठीक से काम न कर पाने के लिए खुद को दोषी मानती हैं। कइयों ने यह भी कहा कि वे अपने स्वास्थ्य व काम के संतुलन को बेहतर करने के लिए अपने काम के घंटे कम करना चाहती हैं।
जापान ब्रॉडकास्टिंग कॉर्पोरेशन ने पिछले साल मेनोपॉज़ से गुज़र रही महिलाओं का एक सर्वे किया था। इस सर्वे में लगभग 20 फीसदी महिलाओं ने नौकरी छोड़ने, प्रमोशन न लेने, काम के घंटे कम करने या पदावनति करने की बात कही।
साइंस, टेक्नॉलॉजी, इंजीनियरिंग व मेथ (STEM) के क्षेत्र में काम कर रही महिलाओं को लगता है कि अगर वे अपने बॉस या साथी स्टाफ के साथ मेनोपॉज़ की दिक्कतों के बारे में बात करेंगी तो वे महिलाओं के खिलाफ और भी पूर्वाग्रहों से भर जाएंगे। परिणाम यह होता है कि वे रिसर्च की बजाय प्रशासनिक काम ज़्यादा पसन्द करती हैं।
कार्यस्थलों के लिए मेनोपॉज़ नीति बनाने की सख्त ज़रूरत है। और ऐसी नीति बनाते वक्त महिलाओं को भागीदार बनाना तथा उनसे सुझाव लेना ज़रूरी होगा। काम करने की व्यवस्था को लचीला बनाया जाए। जैसे, वे महिलाएं कुछ घंटों की छुट्टी लेकर डॉक्टर से मिल सकें, घर से काम कर सकें, ऑफिस में एक ऐसी जगह हो जहां हालत बिगड़ने पर कुछ देर आराम कर सकें, ऐसा माहौल हो कि वे अपनी परेशानियों के बारे में किसी व्यक्ति या फोरम में खुलकर बात कर सकें।
यूके और यूएस जैसे देशों में तो इस दिशा में प्रयास शुरू भी हो गए हैं। मेनोपॉज़ गाइडेंस, मेनोपॉज़ नेटवर्क, मेनोपॉज़ काफे वगैरह बनाने की पहल हुई हैं। सेलेब्रेटी भी इस पर खुलकर बातें कर रहे हैं।
तो आइए, हम जहां भी काम करते हैं वहां प्री-मेनोपॉज़ पर संवाद शुरू करें। काम की जगहों को प्री-मेनोपॉज़ से गुज़र रही महिलाओं के अनुकूल बनाने की कोशिश करें। मेनोपॉज़ को एक बीमारी या विकार की तरह न देखकर ज़िंदगी के एक दौर की तरह देखें।
कार्यस्थलों पर औरतों की संख्या जितनी बढ़ेगी, मेनोपॉज़, गर्भावस्था, स्तनपान जैसी चीज़ों पर लोगों के पूर्वाग्रह उतने ही कम होंगे और लोग संवेदनशील भी बनेंगे। (स्रोत फीचर्स)
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