उत्तर प्रदेश की राजनीति में फिलहाल हाशिए पर पहुंची बसपा अपनी विरोधी पार्टी सपा के चुनावी प्रदर्शन के बीच अपने लिए संभावनाएं टटोल रही है. उसकी उम्मीद सपा से मुस्लिमों के छिटकने पर टिकी हुई है. दिलचस्प है कि इसके लिए वो मैदान के बाहर से इंतजार कर रही है. हाल में उत्तर प्रदेश के तीन उपचुनावों में मैनपुरी और खतौली की जीत के बाद सपा उत्तर प्रदेश के मतदाताओं के बीच संदेश देने में कामयाब रही है कि वही भाजपा के विजय रथ को रोक सकती है.
आम तौर पर उपचुनावों से दूर रहने वाली बसपा ने इन तीनों उपचुनावों में भी अपने उम्मीदवार नहीं उतारे थे. ऐसे में इन उपचुनावों के नतीजों से उसका सीधा ताल्लुक नहीं है, लेकिन फिर भी इन नतीजों ने उसकी चिंताएं बढ़ाई हैं. क्यों ? असलियत में इन नतीजों ने बसपा के लिए खतरे की घंटी को तेज किया है. उत्तर प्रदेश में वापसी के लिए बेचैन बसपा के लिए गुंजाइश सपा की कमजोरी में ही मुमकिन है. सपा की हार की दशा में ही बसपा उसके मुस्लिम वोट के छिटकने की उम्मीद कर सकती है.
कुछ महीनों पहले आजमगढ़ और रामपुर के लोकसभा उपचुनावों में भाजपा की जीत ने बसपा को तसल्ली दी थी. आजमगढ़ उपचुनाव में बसपा के मुस्लिम उम्मीदवार गुड्डू जमाली हालांकि तीसरे स्थान पर रहे थे लेकिन उन्हें मिले 2,66,120 वोटों में मुस्लिम वोटों की बड़ी हिस्सेदारी ने उसे उत्साहित किया था. रामपुर लोकसभा उपचुनाव में सपा के मुस्लिम उम्मीदवार की मौजूदगी में बसपा ने अपना उम्मीदवार नहीं उतारा था. इसका मकसद प्रदेश के मुस्लिम मतदाताओं को संदेश देना था कि उनकी जीत में बसपा बाधक नहीं बनेगी.
भीम आर्मी का सपा – रालोद से जुड़ाव बसपा की फिक्र की नई वजह
अगर मैनपुरी और खतौली की बड़ी जीत ने सपा को प्रदेश के मतदाताओं के बीच अपनी मजबूती का संदेश देने में कामयाब किया है तो दूसरी ओर इसने बसपा को सपा के पक्ष में बने नए समीकरणों ने और परेशान किया है. भीम आर्मी के चंद्रशेखर रावण इन उपचुनावों में सपा – रालोद गठबंधन के उम्मीदवारों के पक्ष में सक्रिय थे. नतीजों ने संकेत दिए कि सपा का परंपरागत मुस्लिम – यादव वोट बैंक तो एकजुट रहा ही, उसी के साथ दलितों और अतिपिछड़ों ने भी जुड़कर इसे और विस्तार दिया. मायावती के दलित वोट बैंक में भाजपा पहले ही सेंधमारी कर चुकी है. भीम आर्मी के जरिए अब सपा की उसमे हिस्सेदारी बसपा को और कमजोर कर रही है.
मायावती क्या कर रही हैं ? ट्वीट ….!
मायावती क्या कर रही हैं ? सपा जमीन पर लड़ रही है तो मायावती ट्विटर से निशाने साध रही हैं. इसके लिए उन्होंने मुस्लिम बाहुल्य रामपुर में सपा के मुस्लिम उम्मीदवार की हार पर फोकस किया है. उनका ताजा ट्वीट है , ” इस बारे में खासकर मुस्लिम समाज को काफी चिंतन करने और समझने की भी जरूरत है ताकि आगे होने वाले चुनावों में धोखा खाने से बचा जा सके.” जाहिर है कि मायावती मुस्लिम मतदाताओं को सोचने के लिए प्रेरित कर रही हैं कि सपा के हिंदू उम्मीदवारों की जीत लेकिन मुस्लिम उम्मीदवार की हार की वजह क्या है ? मायावती इसकी वजह भाजपा और सपा की मिलीभगत से योजनाबद्ध ढंग से रामपुर में कम वोटिंग करना बताती हैं.
जमीनी सक्रियता की कमी मायावती की बड़ी कमजोरी
जबाबी हमले में एक बार फिर अखिलेश यादव ने बसपा पर भाजपा के इशारे पर चलने का आरोप दोहरा दिया है. मायावती की दिक्कत है कि वो कई मोर्चों पर घिरी हुई हैं और वे इन्हें पार पाने का रास्ता नहीं खोज पा रही हैं. जमीनी सक्रियता का अभाव भी इसमें आड़े आ रहा है. वो अपने को भाजपा की मुख्य प्रतिद्वंदी के रूप में पेश करना चाहती हैं, लेकिन उनके छीजते जनाधार के साथ ही सच में भाजपा के उनसे लड़ने पर भी सवाल हैं. शुरुआती कामयाबी के बाद मायावती और बसपा तेजी से नीचे फिसल रहे हैं. 2007 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में पूर्ण बहुमत की सरकार उनकी आखिरी बड़ी सफलता थी.
वाम दलों ने 2009 में उन्हें प्रधानमंत्री बनाने का असफल बीड़ा उठाया था. उस चुनाव में बसपा लोकसभा की सिर्फ 21सीटें जीत सकी थी. 2012 में उत्तर प्रदेश की सत्ता से बेदखली और राज्य की 80 सीटों पर सिमटने के बाद 2014 के लोकसभा चुनाव में पार्टी शून्य पर पहुंच गई. 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में दुर्गति का सिलसिला जारी रहा और सीटें घटकर 17 रह गईं. इन पराजयों ने 2019 के लोकसभा चुनाव में मायावती को मुलायम सिंह यादव परिवार से निजी नाराजगी को भुलाकर सपा से गठबंधन के लिए मजबूर कर दिया था. इस चुनाव में बसपा को उत्तर प्रदेश की दस लोकसभा सीटों पर मिली जीत को मायावती ने अपनी वापसी मान लिया था. फौरन ही गठबंधन को तोड़ते हुए उन्होंने सपा और अखिलेश यादव पर हमले तेज कर दिए थे. 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजे उनके लिए विनाशकारी थे. पार्टी सिर्फ एक सीट पर जीती. उसके 403 उम्मीदवारों में 290 की जमानत जब्त हो गई। 2017 में मिले 22.24 फीसद वोट घटकर 12.9 फीसद रह गए.
बसपा की वापसी की कठिन डगर
बसपा की वापसी कैसे हो ? इसके लिए मायावती को मुस्लिम मतों की संजीवनी की चाहत है. पिछले कुछ दिनों में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इमरान मसूद सहित कुछ मुस्लिम चेहरे उनसे जुड़े हैं. दलितों और अति पिछड़ों के परंपरागत वोट बैंक में मुस्लिम वोटों को जोड़कर मायावती ऐसा वोट बैंक तैयार करना चाहती हैं जो भाजपा पर भारी पड़े. दिक्कत यह है कि उनके विरोधियों ने उत्तर प्रदेश में बसपा पर भाजपा की बी टीम होने का का टैग भाजपा विरोधी वोटरों के मन पर टांक दिया है. 2022 के विधानसभा चुनाव इसकी गवाही देते हैं. बसपा के 88 मुस्लिम उम्मीदवार मैदान में थे और वे सभी हारे. अधिकांश मुस्लिम उम्मीदवार ‘ वोट कटवा ‘ माने गए. 2024 की चुनौती सामने है. फिलहाल की उत्तर प्रदेश की राजनीतिक तस्वीर बसपा के लिए उत्साहित करने वाली नहीं दिखती.
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