छत्‍तीसगढ़ की धान की तीन किस्मों से मिले कैंसर रोधी तत्व

रायपुर, 09 अक्टूबर । छत्‍तीसगढ़ में धान की तीन पारंपरिक किस्मों में कैंसर निरोधी क्षमता पाई गई है। धान की गठवन, महाराजी व लाइफा किस्मों में फेफड़े व स्तन कैंसर की कोशिकाओं को खत्म करने के गुण मिले हैं। भाभा एटामिक रिसर्च सेंटर और इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय ने धान की इन प्रजातियों के औषधीय गुणों का अध्ययन करने के लिए चूहों पर किया जा रहा प्रयोग सफल रहा। वैज्ञानिकों ने बताया कि इन प्रजातियों के धान की भूसी में कैंसर रोधी तत्व पाए गए हैं। चूहों पर सफल प्रयोग के पश्चात भाभा एटामिक रिसर्च सेंटर ने केंद्र सरकार को प्रस्ताव भेजकर मनुष्यों पर इसके प्रयोग की अनुमति मांगी है। धान का कटोरा कहे जाने वाले छत्तीसगढ़ में धान की कई परंपरागत प्रजातियां मिलती हैं।

चूहों पर कैंसर रोधी धान का परीक्षण सफल, अब इंसानों की बारी

वैज्ञानियों का कहना है कि इसका मानवीय माडल पर परीक्षण की अनुमति मिलते ही इसका परीक्षण कियाजाना है। इसके बाद इसके व्यावसायिक उपयोग के बारे में भी सोचा जाएगा। इसे दवा के रूप में या भोजन के रूप में लांच करना है,उसके बाद ही तय किया जाएगा। अभी ये जो तीन प्रजातियां है,वह देसी परंपरागत वैराइटी है। इनकी ऊंचाई अधिक है,इसके चलते यह पकने के बाद भार ज्यादा होने से गिर जाती है। बताया जा रहा है कि इन प्रजातियों की ऊंचाई को कम करने के लिए या बौना करने के लिए म्यूटेशन ब्रीडिंग का प्रोग्राम भी भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र के साथ चल रहा है। अभी इस पूरी प्रक्रिया में दो से तीन वर्ष लगेंगे।

लाइचा प्रजाति कैंसर का प्रगुणन रोकने और उन्हें खत्म करने सर्वाधिक प्रभावी

कृषि वैज्ञानियों ने बताया कि प्रदेश की तीन औषधीय धान प्रजातियां गठवन, महाराजी और लाइचा में फेफेड़े और स्तन कैंसर की कोशिकाओं को खत्म करने के गुण है। विशेषकर लाइचा प्रजाति कैंसर की कोशिकाओं का प्रगुणन रोकने और उन्हें खत्म करने में सर्वाधिक प्रभावी है। इस अनुसंधान से कैंसर के उपचार में आशा की नई किरण जगी है।

इन किस्मों में कैंसर रोधी गुण पाए गए

इंदिरा गांधी कृषि विवि में धान की लगभग 23250 प्रजातियां है। इनमें से बहुत में औषधीय गुण भी है। ऐसी ही 13 प्रजातियों को विवि ने चिन्हित किया था। इनमें से तीन प्रजातियों में कैंसर रोधी गुण पाए गए है। ये किस्में है गठवन, महाराजी व लाइफा। भाभा एटामिक रिसर्च सेंटर के साथ मिलकर चुहों में इसका प्रयोग किया जा रहा था,जो सफल रहा।

– वीके त्रिपाठी, सहसंचालक, अनुसंधान इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय

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