जगदलपुर, 17 सितंबर रियासत कालीन बस्तर दशहरा में राम-रावण से कोई सरोकार नहीं है, रावण नहीं मारा जाता, अपितु बस्तर की आराध्य देवी मां दंतेश्वरी सहित बस्तर संभाग की देवी-देवताओं की 13 दिन तक पूजा अर्चना होती हैं। बस्तर दशहरा सर्वाधिक दीर्घ अवधि वाला पर्व माना जाता है, इसकी संपन्न्ता अवधि 75 दिवसीय होती है।
बस्तर दशहरा 614 वर्षों से परंपरानुसार मनाया जा रहा है। इस पर्व का आरंभ वर्षाकाल के श्रावण मास की हरेली अमावस्या से होता है, जब रथ निर्माण के लिए प्रथम लकड़ी काटकर जंगल से लाया जाता है, इसे पाट जात्रा पूजा विधान कहा जाता है। तत्पश्चात सिरहासार भवन में डेरी गड़ाई पूजा विधान के उपरांत रथ निर्माण हेतु विभिन्न गांवों से लकड़ियां लाकर रथ निर्माण कार्य प्रारंभ किया जाता है। वर्तमान में रथ निर्माण का कार्य जारी है।
75 दिनों की इस लम्बी अवधि में प्रमुख रूप से काछन गादी, पाट जात्रा, डेरी गड़ाई, काछन गादी, जोगी बिठाई, मावली परघाव, बेल नेवता, निशा जात्रा, भीतर रैनी, बाहर रैनी तथा कुटुंब जात्रा, माई जी की विदाई, मुरिया दरबार मुख्य रस्मों का निर्वहन किया जाता है, जो धूमधाम व हर्षोल्लास से बस्तर के संभागीय मुख्यालय जगदलपुर में संपन्न होती हैं। रथ परिक्रमा प्रारंभ करने से पूर्व काछनगुड़ी में कुंवारी हरिजन कन्या पर सवार काछन देवी कांटे के झूले में झूलाते हैं तथा उससे दशहरा मनाने की अनुमति एवं निविघ्र संपन्नता का आशिर्वाद लिया जाता है। बस्तर दशहरा का सबसे आकर्षण का केंद्र होता है, काष्ठ निर्मित विशालकाय दुमंजिला रथ में आस्था, भक्ति का प्रतीक-माई दंतेश्वरी का छत्र को रथारूढ़ कर सैकड़ों ग्रामीण उत्साह पूर्वक खींचते हैं।
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