युद्ध में विजय का राजनीतिक लाभ उठाने के लिए कांग्रेस ने यूपी का चुनाव दो साल पहले ही 1972 में करा दिया था

सन् 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में विजय का चुनावी लाभ उठाने के लिए कांग्रेस सरकार ने दो साल पहले ही 1972 में उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव करवा दिया था. उत्तर प्रदेश में उससे पहले सन् 1969 में विधानसभा का मध्यावधि चुनाव हुआ था. अगला चुनाव 1974 में होना था. लेकिन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस हाईकमान को यह लग रहा था कि शायद 1974 तक युद्ध में विजय से मिली लोकप्रियता कायम न रह सके.

इसीलिए एक बार फिर मध्यावधि चुनाव कराया गया. उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री कमलापति त्रिपाठी और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष राजेंद्र कुमार वाजपेयी के विरोध के बावजूद समय से पहले चुनाव कराया गया. उस समय उत्तर प्रदेश विधानसभा में कांग्रेस को पूर्ण बहुमत हासिल था. कांग्रेस के 230 विधायक थे. यानि, मंत्रिमंडल के स्थायित्व पर कोई खतरा नहीं था. राजेंद्र कुमारी वाजपेयी ने कांग्रेस हाईकमान से यह कह दिया था कि ‘चुनाव आवश्यक नहीं प्रतीत होता.’ पर राज्य के इन दोनों शीर्ष नेताओं की राय पार्टी हाईकमान ने ठुकरा दी. वैसे कांग्रेस के कुछ नेता और उत्तर प्रदेश से कुछ कांग्रेसी सांसद चुनाव चाहते थे. कुछ वैसे नेता भी चुनाव चाहते थे जिन्हें कमलापति त्रिपाठी नापंसद थे. वे नहीं चाहते थे कि त्रिपाठी जी 1974 तक मुख्य मंत्री बने रहें. साथ ही, समय से पहले चुनाव के विरोधी चाहते थे कि कमलापति त्रिपाठी मुख्यमंत्री बने रहें.

युद्ध में विजय के बाद इंदिरा कांग्रेस की ताकत बढ़ी थी

उत्तर प्रदेश कांग्रेस के कुछ नेताओं की यह राय थी कि प्रदेश पार्टी में जब तक आपसी मतभेद कायम है, तब तक चुनाव कराना खतरा मोल लेना होगा. क्योंकि वैसी स्थिति में भीतरघात हो सकता है. याद रहे कि प्रदेश कांग्रेस का एक गुट कमलापति त्रिपाठी को मुख्यमंत्री पद से हटवाना चाहता था. त्रिपाठी गुट का यह भी तर्क था कि जब सन 1974 तक उनके मुख्यमंत्री पद पर बने रहने में कोई बाधा नहीं है तो चुनाव क्यों कराया जाए? पर, दूसरी ओर यह तर्क दिया गया कि मौजूदा विधायकों में अधिकतर बुजुर्ग लोग हैं. उनकी ‘लॉयल्टी’ कांग्रेस हाईकमान यानि इंदिरा गांधी के प्रति संदिग्ध है.

जब नया चुनाव होगा तो कांग्रेस अधिक संख्या में नए लोगों को टिकट देगी. उससे प्रदेश कांग्रेस में नई जान फूंकने में मदद मिलेगी. समय पूर्व चुनाव करा देने से नई कांग्रेस को एक और लाभ हुआ. गैर कांग्रेसी दलों से कई विधायक इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस में शामिल हो गए. वे अपने पुराने दल में रह कर जीत के प्रति आशंकित थे. सन 1971 के लोकसभा चुनाव के समय से ही यह स्पष्ट हो गया था कि इंदिरा कांग्रेस के पक्ष में देश में हवा बह रही है. युद्ध में विजय के बाद इंदिरा कांग्रेस की ताकत और बढ़ी. पर, उधर इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस हाईकमान अधिकाधिक विधानसभाओं के चुनाव करवा कर देश में एकछत्र ‘राज’ करना चाहती थी.

युद्ध में जीत को भुनाने के लिए की गई जनता से अपील काम आई

1967 और 1972 के बीच कई प्रादेशिक सरकारें कांग्रेस के हाथों से निकल गई थीं. भारत की मदद से बांग्लादेश के निर्माण के बाद पूरे देश में इंदिरा गांधी की सराहना हो रही थी और पार्टी में उनकी तूती बोलती थी. 1972 में वैसे भी बिहार तथा कुछ अन्य राज्यों में चुनाव होने थे. कांग्रेस ने उन चुनावों के लिए जो घोषणा पत्र जारी किया, उसमें कहा गया कि ‘भारत-पाक युद्ध में भारत की विजय श्रीमती इंदिरा गांधी के सफल नेतृत्व का प्रतीक है. श्रीमती गांधी का हाथ मजबूत करने के लिए विभिन्न प्रदेशों में अब कांग्रेस पार्टी की ही सरकार होनी चाहिए. घोषणा पत्र में यह भी कहा गया कि गरीबी नेस्तनाबूद करने के लिए केंद्र और राज्यों का तालमेल होना आवश्यक है. इसके लिए राज्यों में भी कांग्रेस का शासन वांछनीय होगा.’

1972 के चुनाव के उस अवसर पर प्रधानमंत्री ने मतदाताओं के नाम अलग से चिट्ठी भी लिखी और प्रसारित की थी. चिट्ठी कई भाषाओं में तैयार की गई थी. चिट्ठी भरसक घर -घर पहुंचाई गई. उस पत्र में लिखा गया था कि ‘देशवासियों की एकता और उच्च आदर्शों के प्रति उनकी निष्ठा ने हमें युद्ध में जिताया. अब उसी लगन से हमें गरीबी हटानी है. इसके लिए हमें विभिन्न प्रदेशों में ऐसी स्थायी सरकारों की जरूरत है, जिनकी साझेदारी केंद्रीय सरकार के साथ हो सके.’

कांग्रेस अब वही आरोप बीजेपी पर लगाती है

जाहिर है कि ऐसी अपील युद्ध में जीत को भुनाने के लिए ही की गई थी. बाद के चुनाव रिजल्ट ने बताया कि वह अपील काम आई. युद्ध में जीत का इस्तेमाल चुनाव में जीत के लिए करने का संभवतः इस देश में वह पहला ठोस उदाहरण था. ऐसे में आत्मविश्वास से भरी कांग्रेस ने यदि उत्तर प्रदेश के चुनाव को निर्धारित समय से दो साल पहले करा लिया तो उसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं. समय से पहले गैर जरूरी चुनाव यानि चुनाव खर्चे का सरकारी खजाने पर अनावश्यक बोझ. वैसे उस अनावश्यक बोझ की चिंता आज के कितने नेता करते हैं? चुनाव में जीत उनके लिए अधिक जरूरी होती है. हां, आश्चर्य तब होता है जब आज की कांग्रेस, बीजेपी पर यह आरोप लगाती है कि उसने सन 2016 के सर्जिकल स्ट्राइक का बाद के चुनावों में राजनीतिक लाभ उठाया. जबकि वह उपलब्धि नरेंद्र मोदी की नहीं बल्कि भारतीय सेना की थी.