चुनावी लोकलुभावन वादों पर नियंत्रण की मांग पर बंधे हैं चुनाव आयोग के हाथ

जैसे-जैसे चुनाव निकट आते हैं, वादों की झड़ी लग जाती है। सभी राजनीतिक दलों को सहसा गरीब आम आदमी की याद आने लगती है। महिला, युवा, अल्पसंख्यक, झुग्गियों में रहने वाले, अनधिकृत कालोनियों के लोग अहम हो जाते हैं। साढ़े चार साल जिन मतदाताओं की अनदेखी हुई, वे अचानक महत्वपूर्ण हो जाते हैं। वादों में मुफ्त बिजली-पानी, सस्ता अनाज, तेल, गैस, फोन और लैपटाप जैसी हर वह वस्तु समाहित है, जिनसे मतदाताओं का ध्यान आकृष्ट होता है। चुनाव आयोग के पास कई बार ऐसे आवेदन आए हैं, जिनमें इन वादों पर नियंत्रण की मांग की गई, लेकिन सत्य सही है कि इस संबंध में आयोग की शक्ति सीमित है। वैधानिक तौर पर आयोग इन पर रोक नहीं लगा सकता है।

वादे मूलत: दो प्रकार के होते हैं। एक, जिनसे लोगों को व्यक्तिगत लाभ हो सकता है और दूसरा, जिनसे समाज का भला होता है। व्यक्तिगत लाभ का अर्थ है किसी के खाते में कुछ राशि डाल देना, जो सीधे तौर पर रिश्वत ही है। यहां तक कि पार्टी या उम्मीदवार की तरफ से मतदाता को एक कप चाय पिलाना भी रिश्वत ही है। ऐसे वादे सत्ताधारी और विपक्ष दोनों तरफ से किए जाते हैं। अंतर यही है कि सत्ताधारी दल के पास सरकारी खजाने का नियंत्रण भी होता है।

सब्सिडी का एलान, कीमतों में कटौती (जैसे पेट्रोल की कीमत), नई योजनाएं लाना आदि जैसी घोषणाएं सत्ताधारी दल करते हैं। राजनीतिक दल चुनाव आयोग की तरफ से आचार संहिता लागू होने से पहले ही ऐसी घोषणाएं करने की जल्दबाजी में रहते हैं। आचार संहिता प्रभावी होने के बाद सरकार नई योजनाओं की घोषणा नहीं कर सकती है, लेकिन घोषणापत्र पर आचार संहिता प्रभावी नहीं होती। एक-दो रुपये किलो चावल, मुफ्त टीवी, लैपटाप, साइकिल समेत सब तरह के वादे घोषणापत्र के माध्यम से किए जाते हैं। कई बार इन वादों की व्यवहार्यता पर सवाल भी उठता है।

इस मामले में तथ्य यही है कि घोषणापत्र पूरी तरह से वैध हैं, चाहे उनमें चांद तोड़कर लाने का वादा ही क्यों न कर दिया जाए। चुनाव आयोग इस संबंध में कुछ नहीं कर सकता है। यहां तक कि पांच जुलाई, 2013 के अपने एक आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने भी माना था कि आरपी एक्ट (जन प्रतिनिधित्व कानून) के तहत घोषणापत्र में किए गए वादों को ‘कदाचार’ की श्रेणी में नहीं डाला जा सकता है। हालांकि इनसे जनता को प्रभावित करना संभव होता है और निष्पक्ष चुनाव की अवधारणा पर चोट लगती है। इसे देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को संबंधित दलों के साथ विमर्श करके घोषणापत्र के वादों को लेकर दिशानिर्देश जारी करने को कहा था। चुनाव आयोग के साथ बैठक में ज्यादातर राजनीतिक दलों ने तर्क दिया कि लोकतंत्र के तहत घोषणापत्र में ऐसे वादे करना मतदाता के प्रति उनका अधिकार भी है और कर्तव्य भी। सैद्धांतिक तौर पर चुनाव आयोग ने भी इससे सहमति जताई और इस बात को भी रेखांकित किया कि इनके कुछ अनचाहे परिणाम भी होते हैं।

चुनाव आयोग ने 31 जनवरी, 2014 को दिशानिर्देशों का मसौदा जारी कर राजनीतिक दलों की राय मांगी थी। इसमें उम्मीद की गई कि घोषणापत्रों में व्यावहारिक वादे हों और उनमें वादों को पूरा करने के तरीके व वित्तीय जरूरत के बारे में भी बताया जाए। मुझे नहीं लगता है कि ऐसा हो पाएगा। चुनाव आयोग ने स्वीकार किया है कि वह घोषणापत्रों की समीक्षा करने और उनके वित्तीय दुष्प्रभावों के बारे में नहीं बताने वाले दलों के खिलाफ कार्रवाई करने में सक्षम नहीं है। चुनाव आयोग आचार संहिता प्रभावी होने के बाद घोषणापत्र से इतर किए गए वादों पर नजर रखता है। 2012 में घोषणापत्र से इतर अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षण का वादा करने पर एक मंत्री को मुश्किल का सामना करना पड़ा था।

प्रश्न यह है कि लोगों के कल्याण की सारी बातें नेताओं को चुनाव से ठीक पहले ही क्यों याद आती हैं। मतदाताओं को इस बारे में जागरूक होना होगा। विपक्षी दलों और मीडिया को यह प्रश्न उठाना चाहिए कि पिछली बार के कितने वादे पूरे हुए और कितने अधूरे रह गए। अव्यावहारिक वादों को लोगों के सामने लाने का काम विपक्षी दलों का है। सामान्य मतदाता यदि यह न भी समझ पाएं कि वादे कितने व्यावहारिक हैं, तब भी वे यह तुलना कर सकते हैं कि पहले कितने वादे किए गए और कितने पूरे हुए। मतदाताओं को भी अच्छे प्रशासन के प्रति समर्थन दिखाना चाहिए।

तस्वीर का एक पहलू यह भी है कुछ मामलों में मेरा मानना है कि सस्ते अनाज और जरूरत की वस्तुएं मुफ्त में देने जैसे वादे काफी हद तक अच्छे हैं। एकदो रुपये किग्रा चावल देने से भुखमरी से मौत के मामले कम हुए। एक बड़ी संख्या में ऐसी आबादी की भूख मिटाई जा सकी जिसको दो जून की रोटी नसीब नहीं होती थी। कुछ ऐसी वस्तुएं जिन्हें बड़ा तबका बस अपने सपने में देख सकता था, अब उनके पास हैं। बिहार में साइकिल बांटने से स्कूलों में लड़कियों का प्रवेश बढ़ा। सस्ती बिजली और पानी ने दिल्ली के मतदाताओं को लुभाया है। रोजगार गारंटी योजना से ग्रामीण गरीबों के जीवन पर सकारात्मक प्रभाव दिखा है। सच तो यह है कि मुफ्त उपहारों का विरोध कभी गरीब नहीं करता है। इनका विरोध हमेशा संपन्न वर्ग करता है। यही कारण है कि गरीब चुनावों की प्रतीक्षा करते रहते हैं।

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