कोरबा 28 अगस्त (वेदांत समाचार) महिलाओं ने ( हलषष्ठी व्रत ) की पूजा की गई। में जगह-जगह पत्थरीपारा बजरंगबली प्रांगण में और मोहल्ले में धूमधाम से पर्व मनाया गया व पूजा व शिव पार्वती की पूजा अर्चना की। महिलाओं हलषष्ठी माता से अपनी संतान की लम्बी उम्र के लिए कामना की।
पत्थरी पारा वार्ड नंबर 17 नगर पालिक निगम क्षेत्र अंतर्गत प्रति वर्ष की भांति इस वर्ष भी बहुत ही पुरानी परंपराओं के तहत हलषष्ठी माता का पूजा अर्चना वार्ड के माता बहनों द्वारा बहुत ही श्रद्धा से किया जाता है इसी कड़ी में इस वर्ष भी वार्ड के समस्त माता बहने अपने पुत्र एवं पुत्री यों के उज्जवल भविष्य की कामना करते हुए हलकट्टी माता का कर पूजा अर्चना किया के उक्त आयोजन को लेकर मनीराम जांगड़े सालिक दास वैष्णव का विशेष योगदान रहा।
हलषष्ठी माता के पूजन के लिए आंगन में एक गड्ढा खोदा जाता है जिसे सगरी कहा जाता है। महिलाएं अपने-अपने घरों से मिटटी के खिलौने, बैल, शिवलिंग, गौरी- गणेश इत्यादि बनाकर लाती हैं। जिन्हें उस सगरी के किनारे पूजा के लिए रखा जाता है। उस सगरी में बेल पत्र, भैंस का दूध, दही, घी, फूल, कांसी के फूल, सिंगार का सामान, लाई और महुए का फूल चढ़ाया जाता है, महिलाएं एक साथ बैठकर हलषष्ठी माई के व्रत की कथाएं सुनती हैं। उसके बाद शिवजी की आरती व हलषष्ठी देवी की आरती के साथ पूजन समाप्त होती है। पूजा के बाद माताएं नए कपड़े का टुकड़ा सगरी के जल में डुबाकर घर ले जाती हैं और अपने बच्चों के कमर पर से छह बार स्पर्श करती हैं, इसे पोती मारना कहते हैं।
खम्हार पेड़ की लकड़ी से बनाई दातुन, भैंस के दूध का किया उपयोग
महिलाओं ने बताया कि इस दिन भैंस के अलावा किसी भी अन्य जानवर का दूध व दुग्ध उत्पाद वर्जित होता है। महिलाओं का किसी भी ऐसे स्थान पर जाना वर्जित होता है जहां हल से काम किया जाता हो, यानि खेत, फॉर्म हाउस, यहां तक की अगर घर के बगीचे में भी यदि हल का उपयोग होता है तो वहां भी नहीं। महिलाएं खम्हार पेड की लकडी का दातुन करती हैं। फलाहार में पसहर का चावल खाया जाता है। आज के दिन कलछी का उपयोग खाना बनाने के लिए नहीं किया जाता, खम्हार की लकड़ी को चम्मच के रूप में प्रयोग में लाया जाता है। छह प्रकार की भाजियों को काली मिर्च और पानी में पकाया जाता है, भैंस के घी का प्रयोग छौंकने के लिए किया जा सकता है। इस भोजन को पहले छह प्रकार के जानवरों के लिए जैसे कुत्ते, पक्षी, बिल्ली, गाय, भैंस और चींटियों के लिए दही के साथ पत्तों में परोसा जाता है। फिर व्रत करने वाली महिलाएं सूर्यास्त से पहले फलाहार करती हैं।
हल से उपजे अन्न का उपयोग नहीं किया जाता
हलषष्ठी मान्यतानुसार इस तिथि पर भगवान श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलराम का जन्म हुआ था। हल को वे अपने अस्त्र के रूप में कंधे पर धारण किए रहते थे, इसलिए पूजा के बाद व्रत पारणा में भी हल से उपजे अन्न का उपयोग नहीं किया जाता। माताएं अपने पुत्रों के दीर्घायु के लिए इस व्रत को करती हैं। कहीं-कहीं इसे तीन छठ भी बोलते हैं इसमें कुशा के पत्तों में गांठ लगाती हैं कुशा में ही छठ माता की पूजा करती हैं। महुआ के पत्ते पर कच्चा महुआ तिन्नी का चावल गुड़ आदि का भोग लगाती हैं।
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