“बिहार का चुनाव हम 2025 में जीतना चाहते हैं या 2024 में ही? अगर बिहार की जनता चाहती है तो हमें 2025 तक इंतज़ार करने की जरुरत नहीं है। हम इस नवंबर में होने वाले उपचुनावों में ही मामला सेटल कर सकते हैं।”
ये तीखे, सटीक और बिहार के कई दिग्गजों पर सीधा निशाना साधने वाले बोल, किसी और के नहीं बल्कि 2 अक्टूबर को लाखों की भीड़ के बीच अपनी नई राजनीतिक पार्टी जन सुराज का ऐलान करने वाले प्रशांत किशोर के हैं। प्रशांत इन दिनों जिस क्रांतिकारी अंदाज में नजर आ रहे हैं, उसने न केवल जन सुराज से जुड़े लाखों कार्यकर्ताओं में एक नई ऊर्जा का संचार किया है, बल्कि बिहार के कई प्रगतिशील युवाओं, महिलाओं और पुरुषों को भी एक परिवर्तनकारी विचारधारा से जोड़ने में सफलता पाई है। हालांकि पीके के बिहार को बदलकर रखने के आक्रामक रुख के दूसरे पहलु को देखें और समझने का प्रयास करें तो कई रोचक प्रश्न सामने आएंगे और सबसे बड़ा प्रश्न होगा क्या पीके, केजरीवाल की राह पर चल रहे हैं? या क्या केजरीवाल और पीके को उन दो रेल पटरियों की तरह समझा जा सकता है जो कभी एक नहीं होतीं लेकिन हमेशा साथ चलती हैं!
बिहार में लगभग 2 साल पदयात्रा करने के बाद व्यावसायिक तौर पर चुनावी रणनीति बनाने वाले पीके ने खुद चुनावी रण में उतरने का फैसला किया है। अपनी यात्रा के दौरान उन्होंने पलायन, गरीबी और अशिक्षा को प्रमुख मुद्दा बनाया और परिवारवाद व जातिवाद पर भी जमकर हमला बोला। हालाँकि यह वे पारंपरिक राजनीतिक मुद्दे थे जो सालों से भारतीय राजनीति और खासकर बिहार में जड़ें जमाए हुए हैं। इसे ध्यान में रखते हुए उन्होंने रणनीतिक रूप से बिहार में शराबबंदी के मुद्दे को हवा देना शुरू किया और शराबबंदी से हो रहे राजस्व के नुक्सान को बिहार की शिक्षा व्यवस्था दुरुस्त करने से जोड़ते हुए इसे हटाने का खुलकर समर्थन किया। साथ ही ‘सर्वे’ और ‘स्मार्ट मीटर’ को भी चुनावी मुद्दा बना दिया। पार्टी की लॉन्चिंग कार्यक्रम में इक्कठा भीड़ के बल पर यह भी सन्देश देने का प्रयास किया कि राजनीतिक दलों और राजनेताओं को चुनावी रूप से समृद्ध बनाने वाले पीके जब खुद मैदान में कूदेंगे तो महफ़िल लूटने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ेंगे। हुआ भी कुछ ऐसा ही, फिर प्रत्यासियों का चयन अमेरिकी पैटर्न पर करने की बात हो या आगामी विधानसभा चुनाव में नीतीश सरकार की ताबूत में अंतिम कील ठोकने की, पीके फिलहाल बिहार पर छाए हुए हैं। बिलकुल वैसे ही जैसे साल 2011 के अन्ना हजारे आंदोलन के बाद अरविन्द केजरीवाल दिल्ली की राजनीति का नया सितारा बनकर उभरे थे।
शुरूआती राजनीति के नजरिए से देखें तो केजरीवाल और प्रशांत किशोर लगभग एक ही सियासी घोड़े पर सवार नजर आते हैं। बाहरी समानता की बात करें तो एक ने यूएन की नौकरी छोड़ी तो दूसरे ने आयकर विभाग की, लेकिन गहराई से देखें तो कई राजनीतिक घाटों का पानी पी चुके पीके, कम समय के लिए ही सही पर नीतीश को अपना सियासी गुरु बना चुके हैं, और जिस तरह अन्ना हजारे से केजरीवाल ने किनारा किया, पीके भी उसी राह का अनुसरण कर, नीतीश के सामने ही चुनौती बन खड़े हो गए हैं। हालाँकि केजरीवाल अन्ना के लिए कभी प्रत्यक्ष चुनौती नहीं बने लेकिन उनकी राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं ने अन्ना को उनके खिलाफ जरूर कर दिया। दूसरी ओर साल 2013 में इंडियन पॉलिटिकल एक्शन कमिटी और साल 2014 में सिटीजन फॉर अकाउंटेबल गवर्नेंस की स्थापना कर, पीके ने यह भी साफ़ कर दिया कि उनकी मनसा लंबी लड़ाई लड़ने की है। लड़ाई पूरे सिस्टम के खिलाफ, जिसकी जद में कई उत्तराधिकारियों की कुर्सियां भी शामिल हैं। यह ठीक वैसा ही है जैसा लोकपाल बिल के तहत भ्रष्टाचार के खिलाफ सत्ता को हिलाने और दिल्ली के सिंघासन पर सवार होने की मनसा के साथ, केजरीवाल ने जन आंदोलन को व्यापक रूप देने का काम किया था।
बीजेपी और जेडीयू समेत करीब आधा दर्जन से अधिक राजनीतिक दलों के लिए बतौर चुनावी रणनीतिकार काम चुके पीके आप को भी अपनी सेवाएं दे चुके हैं। हालांकि इन सब के बीच ये भी ध्यान देने की जरुरत है कि जिस तरह अन्ना के आंदोलन ने कई नेताओं को जन्म दिया उसी प्रकार पीके की अब तक की पद यात्राओं ने भी कई महत्वकांक्षी राजनेताओं के बीज बोय हैं। 100 से अधिक आईएएस और आईपीएस अधिकारियों को जन सुराज से जोड़ने के साथ-साथ पीके की टीम में विपक्षी पार्टियों के कई पूर्व सांसद और कद्दावर नेता भी
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