डॉ. आशीष वशिष्ठ
बड़ा सवाल यह है कि कोई कैसे इतनी अकूत संपत्ति जुटा लेता है। आर्थिक अपराधों पर नजर रखने वाली एजेंसियां क्यों तब खामोश थीं जब संसाधनों की लूट-खसोट जारी थी। सवाल यह भी कि कहीं ऐसे भ्रष्टाचार के मामलों का खुलासा चुनाव प्रक्रिया के आसपास राजनीतिक लाभ के लिये तो नहीं होता?
हाल के दिनों में तमाम ऐसी खबरें आई जब जांच एजेंसियों ने नेताओं के यहां छापेमारी कर करोड़ो की काली कमाई पकड़ी। बीते साल दिसंबर में प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी को झारखण्ड के कारोबारी एवं राज्यसभा सांसद के यहां आयकर छापे में अरबों रुपये बरामद हुए। सोशल मीडिया पर सांसद की अकूत कमाई और नोटों के बंडल की तस्वीरें खूब वायरल हुईं। समाचार आये कि नोट गिनने वाली मशीनें नोट गिनते-गिनते थककर खराब हो गई। थैलों में नोट नहीं आए तो बोरों में भरा गया। कांग्रेस के जरिये सांसद बनने वाले धीरज साहू ने 2018 में राज्यसभा का सदस्य बनने के हलफनामे में अपनी संपत्ति 34 करोड़ के करीब बतायी थी। तो आखिर कैसे महज पांच साल में संपत्ति तीन सौ करोड़ पार कर गई? बहरहाल, यह घटना बताती है कि कैसे देश की राजनीति नेताओं की कमाई के लिये कामधेनु बन गई है।
राज्यसभा सांसद ने दो बार लोकसभा का चुनाव लड़ा और हार गया था। फिर राज्यसभा के जरिये संसद पहुंचने की तिकड़में कीं। जाहिर है, धनबल भी उसका एक जरिया रहा होगा। ऐसा भी नहीं है कि भारी मात्रा में नकदी बरामदगी की यह पहली घटना हो। बीते दिनों ही ईडी ने हरियाणाा में अवैध खनन और अन्य मामलों में करोड़ों की नगदी बरामद की। जिन नेताओं के यहां छापेमारी हुए उनमें इंडियन नेशनल लोकदल, कांग्रेस और भाजपा के नेता व उनके करीबी शामिल हैं।
ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि कोई कैसे इतनी अकूत संपत्ति जुटा लेता है। आर्थिक अपराधों पर नजर रखने वाली एजेंसियां क्यों तब खामोश थीं जब संसाधनों की लूट-खसोट जारी थी। सवाल यह भी कि कहीं ऐसे भ्रष्टाचार के मामलों का खुलासा चुनाव प्रक्रिया के आसपास राजनीतिक लाभ के लिये तो नहीं होता? सवाल यह भी है कि क्या सत्ता पक्ष अपने राजनीतिक विरोधियों को बदनाम करने के लिए जांच एजेंसियों का दुरुपयोग करता है?
भ्रष्टाचार उतना ही पुराना है जितनी राजनीति। फर्क सिर्फ इतना हुआ है कि पहले दाल में नमक होता था और अब नमक में दाल। एक फर्क यह भी कि सामाजिक न्याय की राजनीति में उभार आने के बाद भ्रष्टाचार फूहड़ और बेशर्म भी हुआ। पुराने लोग बताते हैं कि पहली लोकसभा के समय जब फिरोज गांधी ने अपनी ही सरकार के खिलाफ मूंदड़ा केस उठाया तो जवाहर लाल की सरकार हिल गई थी।
हिन्दुस्तान का मानस भी भ्रष्टाचार के नाम पर खूब उद्वेलित होता है। खुद कितना ही भ्रष्ट हो पर अपने नेता को ईमानदार देखना इसकी चाहत रहती है। 1977 और 1989 में क्रमशः जेपी आंदोलन और फिर राजा विश्वनाथ प्रताप सिंह की बोफोर्सी दहाड़ के बल पर दिल्ली का निजाम इसीलिए पलटा खा गया कि मूल में भ्रष्टाचार था। पर इधर सामाजिक न्याय की राजनीति के उभार के बाद राजनेताओं का भ्रष्टाचार और ज्यादा फला-फूला। लालू यादव और शिबू सोरेन की सरकारें रहीं हो या फिर मुलायम और मायावती की या फिर हरियाणा में ओमप्रकाश चौटाला की। कोई सरकार भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से बची नहीं।
राजनीतिक इतिहास के पन्ने पलटें तो देश की आजादी के तुरंत बाद यानी 1948 में जीप घोटाला हुआ। जिन मेनन पर घोटाले के आरोप लगे थे उन्हें बाद में जवाहर लाल नेहरू ने अपनी कैबिनेट में मंत्री बनाया। जीप घोटाले के बाद 1951 में साइकिल आयात घोटाला सामने आया। इसके बाद 1956 में बीएचयू फंड घोटाला, 1958 में हरिदास मूंदड़ा मामला, 1960 में तेजा लोन स्कैम, 1963 में प्रताप सिंह कैरों स्कैम, 1965 में पटनायक कलिंग ट्यूब्स मामला, 1974 में मारुति घोटाला, 1976 में कुओ ऑयल डील, 1981 में अंतुले ट्रस्ट, 1987 में एचडीडब्ल्यू दलाली मामला सामने आया। ये वो मामले थे, जिनका खुलासा देश की आज़ादी के बाद सबसे पहले हुआ। इसके बाद हुआ बोफोर्स घोटाला। इसकी गूंज आज भी संसद से लेकर सड़क तक सुनाई देती है। इसमें देश की कई बड़ी दिग्गज हस्तियों का नाम आया था।
2010 में भारत ने कॉमनवेल्थ गेम्स की मेजबानी की थी। भव्य स्तर पर इसका आयोजन हुआ था। पूरी दुनिया से खिलाड़ी आए थे। आयोजन के एक साल बाद यानी 2011 में इस पर बड़ा दाग लगा। आरोप लगा कि इसमें करीब 70 हजार करोड़ का घोटाला हुआ है। इस मामले में मुख्य तौर पर आयोजन समिति के अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी और उनके सहयोगियों के नाम शामिल रहे।
ये बात 2010 की है। देश में इंटरनेट स्पीड को बढ़ाने के लिए मोबाइल नेटवर्क कंपनियों को 2जी स्पेक्ट्रम की नीलामी की गई। कहा जाता है कि इस पूरे मामले में देश के खजाने को 176 हजार करोड़ की हानि हुई। इस मामले के लिए पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और पूर्व संचार मंत्री ए. राजा को जिम्मेदार ठहराया गया। दिसंबर 2017 में सीबीआई कोर्ट ने इस मुकदमे के सभी आरोपियों को रिहा कर दिया।
राजनेता ही नहीं, कई नौकरशाहों के यहां से भारी मात्रा में नकदी व अचल संपत्ति के कागज बरामद होने की भी खबरें सुनी जाती रही हैं। ये घटनाएं बताती हैं कि जिन राजनेताओं व नौकरशाहों पर सामाजिक न्याय व गरीबों के कल्याण की जवाबदेही थी, वे कदाचार का सहारा लेकर अपना घर भरने में लग जाते हैं। इन घटनाक्रमों से यह समझना भी कठिन नहीं है कि कैसे हमारे जनप्रतिनिधि चुने जाने के कुछ समय बाद ही करोड़ों में खेलने लगते हैं। इससे यह भी प्रदर्शित होता है कि हमारे लोकतंत्र में धनबल व भ्रष्टाचार कितने गहरे तक अपनी पैठ बना चुका है।
पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस और तमिलनाडु में सत्तारुढ़ डीएमके के मंत्री भ्रष्टाचार में लिप्त पाए गए हैं। इनमें से कई जेल में हैं। दिल्ली का शराब घोटाला वर्तमान में सबसे चर्चित है। आप के दो बड़े नेता तिहाड़ की रोटियां खा रहे हैं। इसी मामले में जांच एजेंसी दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल को बार-बार समन भेजकर पूछताछ के लिए बुला रही है, लेकिन वो ईडी के सामने पेश होने की बजाय राजनीतिक ड्रामेबाजी और प्रपंचों में मगन हैं। झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को भी भ्रष्टाचार के मामलों में ईडी सात समन भेज चुकी है। सोरेन भी ईडी के सामने पेश होने की हिम्मत जुटा नहीं पा रहे हैं। बीते दिसंबर में अदालत ने उत्तर प्रदेश की बसपा सरकार में शिक्षा मंत्री रहे राकेश धर त्रिपाठी को भ्रष्टाचार के मामले में तीन साल की सजा सुनाई। बीते 22 दिसंबर को मद्रास हाई कोर्ट ने भ्रष्टाचार और आय से अधिक संपत्ति के मामले में डीएमके नेता और तमिलनाडु के उच्च शिक्षा मंत्री को दोषी ठहराते हुए तीन साल की कैद और 50 लाख रुपये जुर्माने की सजा सुनाई है।
2014 में केंद्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार के गठन के बाद से भ्रष्टाचार खासकर राजनीतिक भ्रष्टाचार पर कड़ी कार्रवाई की गई। इससे पूर्व राजनीतिक भ्रष्टाचार पर सभी दलों की आपसी समझ और सहमति दिखाई देती थी। चुनावी मंच पर एक दूसरे को भ्रष्ट बताने की होड़ तो लगती थी, लेकिन चुनाव बाद भ्रष्टाचार पर कोई कार्रवाई नहीं होती थी। मोदी ने राजनीतिक दलों की इस समझ और मूक सहमति को तोड़ा है। इसलिए जब जांच एजेंसियां किसी विपक्षी दल के नेता के यहां छापेमारी करती हैं तो एजेंसियों के दुरुपयोग और राजनीतिक प्रतिशोध जैसी बयानबाजी सुनाई देती है।
राजनीतिक दलों की साफ-सुथरी राजनीति की घोषणाएं न सिर्फ दिखावटी, बल्कि पाखंड हैं। इसलिए, जबकि भारत एक ज़िम्मेदार वैश्विक खिलाड़ी के तौर पर खुद को स्थापित करने का ध्येय रख रहा है तो, राजनीतिक नेतृत्व के लिए ये ज़रूरी हो जाता है कि वे राजनैतिक फन्डिंग में पारदर्शिता लाने के साथ ही व्यापक राजनीतिक सुधार लाना अत्यंत जरूरी है। इसके अलावा अदालतों से न्याय मिलने की प्रक्रिया में सुधार और आरटीआई की प्रक्रिया को मज़बूत रखना भी भ्रष्टाचार के खिलाफ़ की जाने वाली लंबी लड़ाई में एक महत्वपूर्ण क़दम होगा। नेताओं के भ्रष्ट आचरण से आमजन में उनकी साख घट रही है।
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