मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल भारत की एकमात्र राजधानी है जहां के शहरी सीमा क्षेत्र में 12 से ज्यादा बाघ पनाहगार है। एमपी की पहचान जहां टाइगर स्टेट से की जाती है, तो अब भोपाल की पहचान टाइगर कैपिटल के रूप में बनती जा रही है। भोपाल को बाघों ने ना सिर्फ अपना घर बनाया है, बल्कि यह प्रजनन के लिए भी बाघों का पसंदीदा स्थान बन गया है। दरअसल भोपाल के आसपास एक ही टेरिटरी में एक से अधिक बाघों का मूवमेंट है, लेकिन बाघ ज्यादा होने से यहां टेरिटोरियल फाइट नहीं होती है। यहां की पहचान अभी तक झीलों के शहर के नाम पर तो है ही, लेकिन अब इसकी पहचान टाइगर कैपिटल के रूप में बनती जा रही है। देश भर के शहरी इलाके में भोपाल से ज्यादा बाघ कहीं नहीं है। यहां के टाइगर की खासियत है कि वो इंसान के फ्रेंड जैसे हो गए हैं। करीब 15 साल में एक भी जनहानि नहीं हुई।
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वहीं बाघों के मामले में भोपाल की 2 खास बातें हैं, पहली बीचो-बीच वन विहार नेशनल पार्क का होना और दूसरी आसपास बाघ का बसेरा। भोपाल के कलियासोत, केरवा, समर्था, अमोनी और भानपुर के दायरे में 12 बाघ घूम रहे हैं। जिनका जन्म यहीं हुआ है। अब इनका यहां दबदबा भी कायम है। बाघिन टी-123 का तो पूरा कुनबा ही यहां पर है। भोज यूनिवर्सिटी, वाल्मी और मैनिट में बाघ की चहल कदमी हाल ही में बनी हुई थी, लेकिन उन्होंने कभी इंसानों को नुकसान नहीं पहुंचाया।इस मामले को लेकर वाइल्डलाइफ एक्सपोर्ट डॉ सुदेश वाघमारे ने बताया कि क्षेत्राधिकार की लड़ाई बेहतर शिकार क्षेत्र को लेकर होती है। भोपाल के आसपास के बाघों को शिकार मिल रहा है, इसलिए यहां पर वर्चस्व की लड़ाई नहीं हो रही है। भोपाल में घूम रहे बाघ रेसीडेंशियल है। यहीं उनका जन्म हुआ। यह एक ही मां की संतान है, इसलिए यहां इनका मूवमेंट बना हुआ है।
वन विशेषज्ञों के अनुसार एक बाघ की टेरिटरी में कम से कम चार बाघिन होती है। नर बाघों में क्षेत्राधिकार को लेकर वर्चस्व की लड़ाई होती है, मादा बाघों में नहीं। उनका अनुभव रहा है कि मादा बाघिन हमेशा अपनी ही मादा शावक के साथ अपना इलाका शेयर करती है। इसकी वजह से भोपाल के आसपास घूम रहे बाघों में क्षेत्राधिकार को लेकर वर्चस्व की लड़ाई नहीं हो रही है।