आईएमएफ से श्रीलंका को मिली ‘संजीवनी’, दूत ने भारत को क्यों कहा धन्यवाद, जानिए

आईएमएफ समझौते के बाद अब श्रीलंका उम्मीद कर रहा है कि अन्य देश भी उसकी और अधिक मदद करेंगे। उन्होंने कहा कि आईएमएफ समझौते से पहले भारत “एकमात्र भागीदार” था जिसने हमारी मदद की।

आर्थिक संकट से जूझ रहे श्रीलंका के लिए अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) से ‘संजीवनी’ मिली है। आईएमएफ गंभीर संकट से जूझ रहे श्रीलंका के साथ हुए एक प्रारंभिक समझौते के तहत उसे 2.9 अरब डॉलर का ऋण देने को सहमत हुआ है। कोष ने बृहस्पतिवार को यह जानकारी दी। आईएमएफ ने एक बयान में कहा, ‘‘आईएमएफ और श्रीलंका के अधिकारी संकटग्रस्त देश की आर्थिक नीतियों को समर्थन देने की खातिर कर्मचारी स्तर के समझौते पर सहमत हुए हैं। इस व्यवस्था के तहत विस्तारित कोष सुविधा (ईएफएफ) में 48 महीने की अवधि के दौरान 2.9 अरब डॉलर दिए जाएंगे।’’

इसमें कहा गया कि इस मदद का उद्देश्य श्रीलंका में व्यापक आर्थिक स्थिरता और ऋण वहनीयता को बहाल करना है और इसके साथ-साथ वित्तीय स्थिरता की रक्षा करना भी है। आर्थिक मदद देने से पहले आईएमएफ ने श्रीलंका को कई सुधारात्मक कदम उठाने को कहा था। उसने ऋण वहनीयता सुनिश्चित करने और वित्तीय खाई को पाटने में मदद देने के लिए बहुपक्षीय साझेदारों से अतिरिक्त आर्थिक मदद करने और श्रीलंका के कर्जदाताओं से कर्ज राहत देने का आह्वान भी किया था।

इंडियन एक्सप्रेस आइडिया एक्सचेंज में बोलते हुए, भारत में श्रीलंका के उच्चायुक्त मिलिंडा मोरागोडा ने गुरुवार को कहा कि आईएमएफ समझौते के बाद अब श्रीलंका उम्मीद कर रहा है कि अन्य देश भी उसकी और अधिक मदद करेंगे। उन्होंने कहा कि आईएमएफ समझौते से पहले भारत “एकमात्र भागीदार” था जिसने हमारी मदद की। 

उन्होंने कहा, “यहां महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि स्टाफ-स्तरीय समझौता होने से हमें आत्मविश्वास मिला है। पैसा बहुत ज्यादा नहीं है, लेकिन यह हमें विश्वास दिलाता है। हम भारत के आभारी हैं, जिसने हमें आईएमएफ के पास जाने के लिए प्रोत्साहित किया। वित्त मंत्री (निर्मला) सीतारमण और विदेश मंत्री एस जयशंकर ने उसमें भूमिका निभाई। भारत एकमात्र देश था, एकमात्र भागीदार था, जिसने हमारे पास बिना किसी सहायता के बावजूद मदद की।”

इस साल की शुरुआत में, श्रीलंका, अपने इतिहास में सबसे खराब आर्थिक संकट से जूझ रहा था। अभूतपूर्व उथल-पुथल के बाद राष्ट्रपति देश छोड़कर भाग गए थे। ईंधन और दवा जैसी आवश्यक वस्तुओं की भारी कमी के कारण बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए थे, जिसने गोटाबाया राजपक्षे को देश से भागने और राष्ट्रपति पद से इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया था। रानिल विक्रमसिंघे राष्ट्रपति बने। 
 

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