रायपुर। संतान की प्राप्ति, बच्चों की लम्बी उम्र, उनकी रक्षा और संकटों से बचाये रखने के लिए हलषष्ठी व्रत यानी कमरछट का पर्व 17 अगस्त बुधवार को मनाया जायेगा। छत्तीसगढ़ की माताएं, अपनी संतान की समृद्धि और लंबी उम्र के लिए ये व्रत रखती हैं। इसके साथ ही अपने बच्चों की उज्जवल भविष्य की कामना हलषष्ठी माता से मांगा जायेगा।
छत्तीसगढ़ में प्रचलित दो व्रत
वैसे तो हिन्दू धर्म में कई व्रत और त्यौहार हैं, पर छत्तीसगढ़ अंचल में दो ही व्रत ऐसे हैं जिन पर महिलाओं की सबसे ज्यादा आस्था है। एक तीजा और दूसरा कमरछट। जिसमें तीजा सुहाग के लिए और कमरछट संतान के लिए रखा जाता है।
मान्यतानुसार इस तिथि पर भगवान श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलराम का जन्म हुआ था। हल को वे अपने अस्त्र के रूप में कंधे पर धारण किये रहते थे, इसलिए पूजा के बाद व्रत पारणा में भी हल से उपजे अन्न का उपयोग नहीं किया जाता, बल्कि लाल चावल (पसहर) का उपयोग किया जाता है और हल चले स्थानों पर भी नहीं चला जाता। इसलिए छत्तीसगढ़ की महिलाएं इस दिन खेत में काम करने नहीं जाया करती।
ये है हलषष्ठी व्रत के नियम
हलषष्ठी के दिन भैंस के अलावा किसी भी अन्य का दूध व दुग्ध उत्पाद महिलाओं के लिए वर्जित होता है। चाय भी वो भैंस के दूध का ही पी सकती हैं। महिलाओं का किसी भी ऐसे स्थान पर जाना वर्जित होता है, जहां हल से काम किया जाता हो, यानि खेत, फार्म हाउस, यहां तक की अगर घर के बगीचे में भी यदि हल का उपयोग होता है तो वहां भी नहीं।
हलषष्ठी के दिन महिलाएं टूथ-ब्रश और पेस्ट की बजाये खम्हार पेड़ की लकड़ी का दातुन करती हैं। खम्हार ग्रामीण अंचल व जंगलों में पाया जाने वाले पेड़ की एक प्रजाति है। सभी महिलाएं एक जगह एकत्रित होती हैं वहां पर आंगन में दो गड्ढा खोदा जाता है जिसे सगरी कहा जाता है। महिलाएं अपने-अपने घरों से मिटटी के खिलौने, बैल, शिवलिंग, गौरी- गणेश इत्यादि बनाकर लाते हैं जिन्हें उस सगरी के किनारे पूजा के लिए रखा जाता है। उस सगरी में बेल पत्र, भैंस का दूध, दही, घी, फूल, कांसी के फूल, श्रृंगार का सामान, लाई और महुए का फूल चढ़ाया जाता है। महिलाएं एक साथ बैठकर हलषष्ठी माई के व्रत की कथाएँ सुनते हैं। उसके बाद शिव जी की आरती व हलषष्ठी देवी की आरती के साथ पूजन समाप्त होता है।
पोती मारने से बढ़ती है आयु
हलषष्ठी पूजा के बाद माताएं नए कपड़े का टुकड़ा सगरी के जल में डुबाकर घर ले जाती हैं और अपने बच्चों के कमर पर/पीठ पर छ: बार स्पर्श कराती हैं, इसे पोती मारना कहते हैं। मान्यता है कि पोती मारने से बच्चों को दीर्घायु प्राप्त होती है और उनका वर्चस्व बढ़ता है। पूजा के बाद बचे हुए लाई, महुए और नारियल को महिलाएं प्रसाद के रूप में एक दूसरे को बांटती हैं और अपने-अपने घर लेकर जाती हैं।
ऐसे बनता है फलाहार
हलषष्ठी के दिन घर पहुंचकर, महिलाएं फलाहार की तैयारी करती हैं। फलाहार के लिए पसहर का चावल भगोने में बनाया जाता है, इस दिन कलछी का उपयोग खाना बनाने के लिए नहीं किया जाता, खम्हार की लकड़ी को चम्मच के रूप में प्रयोग में लाया जाता है। छह प्रकार की भाजियों को काला मिर्च और पानी में पकाया जाता है, भैंस के घी का प्रयोग छौंकने के लिए किया जा सकता है पर आम तौर पर नहीं किया जाता। इस भोजन को पहले छह प्रकार के जानवरों के लिए जैसे कुत्ते, पक्षी, बिल्ली, गाय, भैंस और चींटियों के लिए दही के साथ पत्तों में परोसा जाता है। फिर व्रत करने वाली महिला फलाहार करती है। नियम के अनुसार सूर्यास्त से पहले फलाहार कर लेना चाहिए।
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