नईदिल्ली I सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एक महिला को अपनी मां के साथ-साथ सास के घर पर रहने का भी पूरा अधिकार है और अदालत इसलिए किसी को भी उसे बाहर निकालने की अनुमति नहीं देगी क्योंकि वे उसे बर्दाश्त नहीं कर सकते। जस्टिस अजय रस्तोगी और बी वी नागरत्ना की अवकाशकालीन पीठ ने सोमवार को यह टिप्पणी की।
अदालत ने कहा, “एक महिला को सिर्फ इसलिए बाहर निकाल देना क्योंकि आप उसका चेहरा बर्दाश्त नहीं कर सकते, अदालत इस बात की अनुमति नहीं देगी। कुछ वैवाहिक झगड़ों के कारण महिलाओं को उनके वैवाहिक घरों से बाहर निकालने का यह रवैया परिवारों को तोड़ रहा है।” न्यायमूर्ति नागरत्ना ने कहा, “अगर उस (महिला) पर दुर्व्यवहार का आरोप लगाया जाता है, तो अदालत द्वारा वैवाहिक घरों में बुजुर्गों और परिवार के सदस्यों को परेशान न करने के लिए शर्तें रखी जा सकती हैं।”
सुप्रीम कोर्ट ने बॉम्बे हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ एक महिला द्वारा दायर याचिका पर यह टिप्पणी की। दरअसल बॉम्बे हाईकोर्ट ने महिला और उसके पति को अपने ससुर का घर खाली करने का निर्देश दिया था। ट्रिब्यूनल ने महिला को ससुर का फ्लैट खाली करने का आदेश दिया था और उसे और उसके पति को बुजुर्ग दंपति को 25,000 रुपये मासिक गुजारा भत्ता देने का भी निर्देश दिया था। जिसके बाद उन्होंने घरेलू हिंसा से महिलाओं के संरक्षण अधिनियम के तहत अपने निवास के अधिकार का हवाला देते हुए ट्रिब्यूनल के आदेश को चुनौती दी और एक रिट याचिका दायर की थी।
हाईकोर्ट ने बुजुर्ग दंपति के बेटे को अपनी पत्नी और दो बच्चों को वैकल्पिक आवास उपलब्ध कराने का आदेश दिया था, लेकिन भरण-पोषण की देनदारी माफ कर दी थी। उसने हाईकोर्ट के आदेश को सुप्रीम कोर्ट के समक्ष चुनौती दी है। पीठ ने गुरुवार को उसकी याचिका को सूचीबद्ध करने का निर्देश दिया और रजिस्ट्री को उसके सास-ससुर को वीडियो कॉन्फ्रेंस लिंक उपलब्ध कराने का निर्देश दिया। न्यायमूर्ति नागरत्ना सुनवाई के दौरान साझा घर में महिला के निवास के अधिकार के बारे में मुखर थीं और उन्होंने इस संबंध में एक मील का पत्थर पेश करते हुए 12 मई के अपने फैसले का हवाला दिया।
12 मई को, SC ने DV (घरेलू हिंसा) अधिनियम के तहत ‘साझा घर’ के दायरे का विस्तार किया था और फैसला सुनाया था कि हर धर्म से संबंधित महिला, चाहे वह मां, बेटियां, बहनें, पत्नी, सास, बहू हो, कानून या घरेलू संबंधों में महिलाओं की ऐसी अन्य श्रेणियों को साझा घर में रहने का अधिकार है। ‘साझा घर में रहने का अधिकार’ शब्द की व्यापक व्याख्या करते हुए शीर्ष अदालत ने कहा था कि इसे केवल वास्तविक वैवाहिक निवास तक ही सीमित नहीं रखा जा सकता है, बल्कि संपत्ति पर अधिकार की परवाह किए बिना इसे अन्य घरों तक बढ़ाया जा सकता है।
जस्टिस एमआर शाह और जस्टिस बीवी नागरत्ना की पीठ ने उत्तराखंड की एक विधवा की याचिका पर यह फैसला दिया। शीर्ष अदालत ने नैनीताल हाई कोर्ट के फैसले को रद कर दिया। हाई कोर्ट ने निचली अदालत के उस फैसले को बरकरार रखा था, जिसमें याचिकाकर्ता को घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम के तहत राहत देने से इन्कार कर दिया गया था। निचली अदालत ने कहा था कि संरक्षण अधिकारी द्वारा महिला के साथ घरेलू हिंसा की कोई रिपोर्ट नहीं दी गई है।
जस्टिस नागरत्ना ने 79 पेज का फैसला लिखते हुए कहा था, “घरेलू रिश्ते में एक महिला जो पीड़ित नहीं है, इस अर्थ में कि जिसे घरेलू हिंसा का शिकार नहीं बनाया गया है, उसे साझा घर में रहने का अधिकार है। इस प्रकार, एक घरेलू रिश्ते में एक मां, बेटी, बहन, पत्नी, सास और बहू या महिलाओं की ऐसी अन्य श्रेणियों को एक साझा घर में रहने का अधिकार है।”
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