नई दिल्ली । हाल ही में पहले गुजरात के निर्दलीय विधायक जिग्नेश मेवानी और फिर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के प्रवक्ता तेजिंदर बग्गा की गिरफ्तारी पर हुए बवाल से राजनीतिक दलों के बीच आरोप-प्रत्यारोप का नया दौर शुरू हो गया है। उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) विक्रम सिंह से इस विवाद पर पांच सवाल और उनके जवाब
सवाल : सत्तारूढ़ राजनीतिक दलों की ओर से विरोधियों के खिलाफ कथित तौर पर बदले की भावना से कार्रवाई करने के मामले सामने आ रहे हैं। आप क्या मानते हैं?
जवाब : अगर आपका इशारा भाजपा नेता तेजिंदर बग्गा की पंजाब पुलिस द्वारा दिल्ली में गिरफ्तारी, गुजरात के निर्दलीय विधायक जिग्नेश मेवानी की असम पुलिस द्वारा गिरफ्तारी और अजान बनाम हनुमान चालीसा विवाद में महराष्ट्र की सांसद नवनीत राणा और उनके विधायक पति रवि राणा की गिरफ्तारी की तरफ है तो ऐसे मामलों में कानून का अनुपालन कम और राजनीतिक प्रतिशोध अधिक नजर आता है।
पंजाब में क्या मुसीबत कम थी। पटियाला में दंगे हुए थे। उस पर गौर कर लेते। हरियाणा में राष्ट्र विरोधी तत्व पकड़े गए थे, जिनके पास से आईडी और अन्य विस्फोटक बरामद हुए थे। इन परिस्थितियों में पंजाब, हरियाणा और दिल्ली पुलिस मिलकर काम करती और ऐसे तत्वों को खत्म करती, लेकिन यहां तो सारी पुलिस बग्गा जी के चक्कर में फंसी है। हमारी पुलिस, तुम्हारी पुलिस चल रहा है। यह संसाधनों और मानवशक्ति का दुरुपयोग है। देश इसके लिए नहीं बना है। देश बना है, एक राष्ट्र होकर संविधान का पालन करने के लिए। राजद्रोह और देशद्रोह का फर्क समझना चाहिए। व्यक्तिगत द्वेष को राजद्रोह की संज्ञा देना बिल्कुल ही अस्वीकार्य होना चाहिए। इस पर अंकुश लगना चाहिए।
सवाल : पंजाब पुलिस बगैर स्थानीय पुलिस को जानकारी दिए दिल्ली से बग्गा को उठा ले जाती है तो असम पुलिस मेवानी को? कानून का अनुपालन कहां हो रहा है?
जवाब : हाल ही में हमने अलका लांबा और कुमार विश्वास के मामले में भी यही स्थिति देखी। ये चीजें बिल्कुल बचकाना हैं और एक ऊंचे स्तर पर पहुंचने के बाद अभिरूची लेकर प्रतिशोध की भावना से काम करना शोभा नहीं देता। बेहतर होगा कि एक मानक संचालन प्रक्रिया (एसओपी) का पालन किया जाए। व्यक्तिगत आक्षेप को लेकर राज सत्ता विरोधी पर टूट पड़े, यह बिल्कुल अस्वीकार्य है। ऐसा तो अंग्रेजों के जमाने में भी नहीं हुआ, जैसा आज हो रहा है।
सवाल : राजनीतिक बदले की भावना से कार्रवाई का इतिहास नया नहीं है। भारतीय राजनीति में लंबे अरसे से हम इसे देखते आ रहे हैं। आखिर इसका निदान क्या है?
जवाब : जयललिता के साथ जो हुआ और जो मायावती गेस्ट हाउस कांड हुआ, ऐसे मामलों की शुरुआत 1995 के बाद हुई। इसके पहले भी सरकारें हुआ करती थीं, लेकिन उस दौर की राजनीति में व्यक्तिगत विरोध का स्थान नहीं था। विरोध सड़कों पर हुआ करता था। वहीं, जिंदाबाद और मुर्दाबाद के नारे लगा करते थे।
वाजपेयी हों या फिर एनडी तिवारी, विश्वनाथ प्रताप सिंह हों या फिर ज्योति बसु, उनके जमाने में राजनीतिक लड़ाई अलग थी और व्यक्तिगत संबंध अलग थे। उस दौर में लोग बड़े थे, जिनके सामने कुर्सी छोटी पड़ जाती थी, लेकिन आज के दौर में बहुत छोटे लोग कुर्सियों पर बैठ गए हैं।
मैं एक और बात कहना चाहूंगा। इस देश को दो काम जरूर करने चाहिए और ये परम अनिवार्य हैं। पहला, जैसा कि आईएएस और आईपीएस के मामले में है कि आप पहले बेदाग हो जाइए, तब सेवा में आइए, इसी तरह की व्यवस्था उन राजनेताओं के लिए होनी चाहिए, जिनके ऊपर आपराधिक मामले हैं। दूसरा, पुलिस सुधार। अफसोस है कि कोई भी राजनीतिक दल या सरकार पुलिस सुधार को लेकर गंभीर नहीं है, क्योंकि उनकी राजनीति चलती ही है इस अपंग, भ्रष्ट और निष्क्रिय पुलिस बल के बलबूते।
सवाल : राजनीतिक दल अपना मकसद साधते हैं, लेकिन पुलिस की साख को बट्टा न लगे, इसके लिए क्या व्यवस्था होनी चाहिए?
जवाब : सबसे बेहतर तरीका है कि पुलिस कानून की परिधि में रहकर काम करे। पहले भी यही होता था। हां, पहले नाजायज हुक्म मानने वालों की संख्या एक प्रतिशत थी। आज यह संख्या कितनी है, यह मैं आपकी यानी पाठकों की कल्पना शक्ति पर छोड़ रहा हूं। ऐसे लोगों को ढूंढना मुश्किल नहीं है, जो नाजायज हुक्म मानने को बेकरार न हों।
सवाल : सिर्फ राज्यों की पुलिस ही नहीं, एक समय की प्रतिष्ठित संस्थाएं, चाहे वह केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) हो या प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) या फिर कोई अन्य केंद्रीय एजेंसी, इनकी कार्रवाई भी सवालों के घेरे में रहती है, खासकर तब जब चुनाव सामने होते हैं। आप क्या कहेंगे?
जवाब : केंद्रीय ऐजेंसियों का एक संवैधानिक उत्तरदायित्व होता है और उन्हें इसी के अनुरूप काम करना चाहिए। ऐसे मामलों में आरोप लगाने वालों से मेरा एक आग्रह है कि वे सिर्फ आरोप न लगाएं। ऐसे मामलों में न्यायिक जांच का भी प्रावधान है। अगर विवेचना में अन्याय हो रहा है तो तत्काल इसकी शिकायत उच्चतम न्यायालय से लेकर अन्य संवैधानिक संस्थानाओं से करें। लेकिन दुख की बात है कि ज्यादातर मामले आरोप-प्रत्यारोप तक ही सीमित होकर रह जाते हैं।
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