निगम अधिनियम संशोधन विधेयक पर मुख्यमंत्री ने जताई आपत्ति, कोर्ट में देंगे चुनौती…

नई दिल्ली 27 मार्च (वेदांत समाचार)  केंद्र सरकार की ओर से दिल्ली नगर निगम अधिनियम में संशोधन के लिए संसद में पेश विधेयक पर मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने आपत्ति जताई है। उन्होंने इसे निगम चुनाव टालने वाला करार दिया। उन्होंने नगर निगम से दिल्ली सरकार को दूर करने के निर्णय को संविधान के खिलाफ बताया। उन्होंने विधेयक का अध्ययन कर कोर्ट में चुनौती देने की बात कही।

दिल्ली विधानसभा में संवाददाता सम्मेलन में मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कहा कि नगर निगम में वार्डों की संख्या कम करने का कोई औचित्य नहीं है, मगर चुनाव टालने के लिए वार्ड कम करने का निर्णय लिया गया। अगर 272 वार्ड रहते तो परिसीमन नहीं करना पड़ता और चुनाव भी समय पर कराने पड़ते, लेकिन अब वार्डों का परिसीमन करना पड़ेगा और चुनाव एक सेे दो साल तक नहीं पाएंगे।

दूसरी ओर उन्होंने कहा कि विधेयक के अनुसार अब नगर निगम को दिल्ली सरकार के बजाय केंद्र सरकार चलाएगी। यह संविधान के खिलाफ है। वह विधेयक आ जाने पर उसका अध्ययन करेंगे और जरूरत हुई तो उसे कोर्ट में चुनौती दी जाएगी।

इस बीच नगर निगम को दिल्ली सरकार से केंद्र सरकार के अधीन करने संबंधी विधेयक पर एक सवाल का जवाब देते हुए मुख्यमंत्री ने माना कि अब नगर निगम एवं दिल्ली सरकार के बीच तालमेल नहीं रहेेगा। उन्होंने कहा कि शहर एवं राज्य के लिए सभी एजेंसियों के बीच तालमेल होना चाहिए, मगर एजेंसियों के बीच तालमेल नहीं होने पर दिक्कत आएगी। हालांकि, बीते सात साल के दौरान उनके समक्ष बहुत दिक्कत आई है और भविष्य में आने वाली दिक्कतों को भी झेल लेंगे।

केंद्र से मिलने वाला अनुदान दिल्ली के माध्यम से देने का प्रावधान
निगमों के एकीकरण के बाद भी विवाद बने रहने के आसार है। क्योंकि नगर निगम को केंद्र से मिलने वाला अनुदान दिल्ली सरकार के माध्यम से देने का प्रावधान है। इसके अलावा निगम को ग्लोबल शेयर, एक मुश्त पार्किंग शुल्क और ट्रांसफर ड्यूटी में दिल्ली सरकार से हिस्सा मिलता है। इन मदों की राशि के संबंध में नगर निगम एवं दिल्ली सरकार के बीच करीब 20 साल से विवाद चल रहा है। लिहाजा भविष्य में भी उनके बीच इन मामलों को लेकर विवाद बने रहने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता।

केंद्र की ओर से दिल्ली सरकार के माध्यम से नगर निगम के लिए शिक्षा एवं स्वास्थ्य सेवाओं के अलावा अन्य मामलों के लिए प्रतिवर्ष करीब एक हजार करोड़ रुपये अनुदान के तौर पर भेजे जाते है। दिल्ली सरकार इस राशि में से नगर निगम को दिए गए ऋण की किस्त एवं ब्याज काट लेती है। इसका नगर निगम की ओर से कड़ा विरोध किया जाता रहा है, मगर दिल्ली सरकार ने उसकी कभी सुनवाई नहीं की।

दिल्ली सरकार के परिवहन विभाग की ओर से नए वाहनों का पंजीकरण करने के दौरान उनसे लिए जाने वाले एक मुश्त पार्किंग शुल्क में नगर निगम का भी हिस्सा होता है। इसी तरह जमीन की खरीद फरोख्त के दौरान दिल्ली सरकार के राजस्व विभाग ट्रांसफर ड्यूटी लेता है, इसमें भी नगर निगम को हिस्सा मिलता है। नगर निगम की ओर से निरंतर आरोप लगाया जाता रहा है कि उसे एक मुश्त पार्किंग शुल्क व ट्रांसफर ड्यूटी के हिस्से की राशि समय पर नहीं दी जाती है।

उधर, नगर निगम को दिल्ली सरकार की आय में से दिल्ली वित्त आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक हिस्सा मिलने का प्रावधान है। इस मामले में भी दिल्ली सरकार एवं नगर निगम के बीच आरोप प्रत्यारोप का दौर चलता रहता है।

केंद्र और दिल्ली में एक सरकार के बाद भी था विवाद
दिल्ली सरकार व नगर निगम के बीच इन मामलों को लेकर उनमें अलग-अलग दल की सरकार होने के दौरान नहीं, बल्कि दोनों जगह एक दल की सरकार होने के बाद भी विवाद रहता है। वर्ष 2002 से 2007 तक दोनों जगह कांग्रेस की सरकार थी। तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित एवं नगर निगम के तत्कालीन नेता रामबाबू शर्मा के बीच खुलेआम आरोप-प्रत्यारोप का दौर चलता था। वहीं वर्ष 2014 में आप सरकार के त्यागपत्र के बाद केंद्र की भाजपा सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर दिल्ली की कमान संभालने के दौरान उपराज्यपाल ने तीनों निगमों के भाजपा नेताओं को बकाया राशि देने से मना कर दिया था। उपराज्यपाल ने तर्क दिया था कि यह नीतिगत मामला है और चुनी हुई सरकार इस संबंध में निर्णय लेगी।

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