वरिष्ठ पत्रकार शंकर पांडे की कभी कभार में पढ़े “सुरता पवन दीवान के…”

छत्तीसगढ़ का गांधी कहे जाने वाले भावुक किस्म के राजनेता, फक्कड़, धर्म संस्कृति के अध्येता पवन दीवान सभी को छोड़कर चले गये हैँ। पूरे छत्तीसगढ़ में उनकी पहचान थी, भागवत पर छत्तीसगढ़ी में प्रवचनकर्ता के रूप में गांव-गांव में उनकी पहचान थी, मान था, संवेदनशील इतने की छोटी सी छोटी बात भी उनके दिल को छू जाती थी, वे यशस्वी कवि भी थे।

हिन्दी, छत्तीसगढ़ी की उनकी कविता छग ही नहीं पूरे देश में चर्चा में रही। ऐसा व्यक्ति राजनीति के रंगढंग में कैसे रच बस सकता था? वैसे राजनीति में वे असहज ही रहे और छग निर्माण के बाद तो वे राजनीति से एक तरह से अलग-थलग कर दिये गये। पावन सलिला महानदी के किनारे ब्रम्हचर्य आश्रम में नदी की कल-कल ध्वनि से ताल मिलाते हुए उनके उन्मुक्त ठहाकों से संपूर्ण प्रदेश गुंजायमान रहता था। छत्तीसगढ़ के गांव-गांव में उनके भागवत प्रवचन पर जिस तरह जनसमूह एकत्रित होकर मुग्ध होकर रसस्वादन करता था, वह किसी से भी छिपा नहीं है। छत्तीसगढ़ का हर व्यक्ति पवन दीवान को पहचानता था और उनके स्वभाव से भी परिचित था।

छत्तीसगढ़ के प्रयाग कहे जाने वाले राजिम (महानदी, पैरी और सोंढूर नदी का जीवंत संगम) के पास स्थिति किरवई गांव में एक जनवरी 1945 को प्रतिष्ठित ब्राम्हण परिवार में जन्मे पवन दीवान की प्रारंभिक शिक्षा फिंगेश्वर में हुई। मेरा भी सौभाग्य रहा कि जहां दीवानजी ने प्राथमिक शिक्षा ली उसी गांव में मेरा भी जन्म हुआ था। अक्सर दीवानजी मुझसे कहा कहते थे कि…’मोर गांव के पास ही तेँ ह जनम ले हस’…। बहरहाल हिन्दी, संस्कृत और अंग्रेजी में एम.ए. करने वाले पवन दीवान जब संस्कृत तथा साइंस कालेज रायपुर में पढ़ते थे तब आचार्य रजनीश और कनक तिवारी भी वहां व्याख्याता थे। छात्र जीवन से ही साहित्य सृजन करने वाले दीवानजी छत्तीसगढ़ी और हिन्दी में कविता भी करने लगे थे वैसे उन्होंने कुछ कविताएं अंग्रेजी में भी लिखी थी। कविता करते करते वे भागवत प्रवचन में लग गये और छत्तीसगढ़ की हालत, दलितों की पीड़ा और अन्यत्र कारणों से व्यथित होकर उन्होंने स्वर्गधाम मैनपुरी ऋषिकेश के स्वामी भजनानंदजी महाराज से दीक्षा लेकर वैराग्य के मार्ग पर बढ़ चले। उनका नाम भी दीक्षा के बाद स्वामी अमृतानंद हो गया, हालांकि वे पवनदीवान के नाम से पहचाने जाते थे। पता नहीं कब और कैसे उनके नाम के साथ संत और कवि भी आगे जुड़ गया। वे छत्तीसगढ़ पृथक राज्य के लिए भी प्रयास करते रहे।

आपातकाल के समय उन्होंने ‘पृथक छत्तीसगढ़ पार्टी’ से भी रायपुर से लोकसभा चुनाव लड़ा पर उन्हें सफलता तो नहीं मिली पर ‘पृथक छत्तीसगढ़ राज्य’ के लिए अलख जगाने का बीज उन्होंने रोपित कर ही दिया। स्व. खूबचंद बघेल से लेकर स्व. चंदूलाल चंद्राकर के सतत संपर्क में रहकर उन्होंने ‘पृथक छत्तीसगढ़’ के लिए जमकर संघर्ष भी किया। उनके बारे में एक नारा बहुत उछला था ‘पवन नहीं वह आंधी है, छत्तीसगढ़ का गांधी है’..

छत्तीसगढ़ की पीड़ा और लगातार हो रहे शोषण पर उन्हें काफी पीड़ा होती थी, उन्होने जनजागरण तो किया ही साथ ही कविता को भी माध्यम बनाया। उनकी एक कविता…

छत्तीसगढ़ में सब कुछ है…
पर एक कमी है स्वाभिमान की…
मुझसे सही नहीं जाती है
ऐसी चुप्पी वर्तमान की….।

छत्तीसगढ़ के शोषकों को वे कविता के माध्यम से चेतावनी भी देने में भी वे पीछे नहीं रहते थे। वे छत्तीसगढ़ महतारी तथा यहां के सीधे सादे मानस के शोषण से भी व्यथित होकर अपनी व्यथा कविता के माध्यम से कुछ यूं बयां करते थे….

घोर अंधेरा भाग रहा है
छत्तीसगढ़ अब जाग रहा है
खौल रहा नदियों का पानी
खेतों में उग रही जवानी
गूंगे जंगल बोल रहे हैं
पत्थर भी मुंह खोल रहे हैं
धान कटोरा रखने वाले
अब बंदुक तोल रहे हैं…

वैसे दीवानजी 1977 के बाद राजनीति में कदम रखा। उन्होंने राजिम विधानसभा से अविभाजित म.प्र. के मुख्यमंत्री पं.श्यामाचरण शुक्ल को पराजित किया और म.प्र. के जेलमंत्री भी बनाये गये थे। तब कैलाश जोशी म.प्र. के मुख्यमंत्री थे। बाद में अर्जुनसिंह के प्रयास से कांग्रेस में शामिल हो गये। 1989 में उन्हें महासमुंद लोकसभा से कांग्रेस की टिकट दी गई पर वे विद्याचरण से मात्र 12894 मतों से पराजित हो गये। उसके बाद 91 तथा 96 में वे चंद्रशेखर साहू को पराजित कर सांसद बने। पर 98 में यही से चंद्रशेखर साहू से पराजित भी रहे। बाद में इनकी लोकसभा से कांग्रेस ने पं. श्यामाचरण शुक्ल को प्रत्याशी बनाया था। इसी के बाद वे राजनीति से स्वयं को पृथक करने लगे। बाद में कभी लोकसभा तो कभी विधानसभा की टिकट की चर्चा होती रही पर इन्हें टिकट से वंचित रखा गया। संवेदनशील दीवानजी ने फिर भागवत कथा के साथ पृथक छत्तीसगढ़ आंदोलन अभियान में सक्रिय हो गये। बाद में कांग्रेस-भाजपा में आने -जाने का दौर चलता रहा। पृथक छत्तीसगढ़ राज्य तो बना उन्हें गौसेवक आयोग का अध्यक्ष बनाकर मंत्री का दर्जा भी दिया गया। पृथक राज्य के लिए आंदोलनकर्ताओं में प्रमुख भूमिका निभाने वाले पवन दीवान को वह मुकाम तो कम से कम नहीं मिला जिसके वे निश्चित तौर पर हकदार थे।

उन्होंने माता कौशल्या का मंदिर बनाने तथा श्रीराम की मां कौशल्या छत्तीसगढ़ की महतारी थी इस रूप में छत्तीसगढ़ की पहचान बनाने की मुहिम में लगे थे। जयपुर में बन रही मां कौशल्या की मूर्ति छत्तीसगढ़ लाने के लिए भी प्रयासरत थे। हालांकि उनके समाधिस्थ होने के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने राजिम में मां कौशल्या के मंदिर की स्थापना की घोषणा कर दीवानजी के एक सपने को पूरा करने की कोशिश की थी, पर वह घोषणा पूरी नहीं हो सकी।

हालांकि छ्ग में माता कौशिल्या के मंदिर का जीर्णोद्धार भूपेश सरकार ने चंदखुरी में कराया है। वैसे यह तय है कि अब राजिम प्रयाग के साथ राजिम कुंभ (कल्प) मां कौशल्या का मंदिर सहित संत कवि पवन दीवन की समाधि भी छत्तीसगढ़ ही नहीं प्रदेश से बाहर से आने वालों के लिए एक दर्शनीय स्थल के रूप में उभरेगी यह तय है…