बॉम्बे हाईकोर्ट की गोवा पीठ ने 2019 के दलबदल मामले में विधानसभा अध्यक्ष के उस फैसले को बरकरार रखा है, जिसमें कांग्रेस पार्टी (CONGRESS) और महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी (MGP) के 12 विधायक अपनी पार्टी छोड़कर राज्य की सत्तारूढ़ भाजपा में शामिल हुए थे. जस्टिस मनीष पिताले और जस्टिस आरएन लड्ढा की पीठ ने गुरुवार को फैसला सुनते हुए कहा कि चूंकि दल-बदल दो-तिहाई विधायकों द्वारा किया गया था, इसलिए इसे दलबदल विरोधी कानून (Anti Defection Law) के मौजूदा प्रावधानों के तहत दलबदल नहीं बल्कि विलय माना जाएगा. इस मामले में कांग्रेस पार्टी और एमजीपी दोनों ने स्पीकर राजेश पाटनेकर के अप्रैल 2021 के फैसले को चुनौती देते हुए अदालत का रुख किया था. कांग्रेस पार्टी ने कहा है कि वह सुप्रीम कोर्ट में हाई कोर्ट के फैसले को चुनौती देगी, जबकि एमजीपी ने घोषणा की है कि वह राष्ट्रपति के पास याचिका दायर करेगी क्योंकि उसके पास इस मामले को सुप्रीम कोर्ट तक ले जाने के लिए संसाधनों की कमी है
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राजनीतिक पार्टियां दलबदल विरोधी कानून की खामियों का इस्तेमाल करती हैं और जनादेश का मजाक उड़ाती हैं. सुप्रीम कोर्ट के लिए इस कानून की नए सिरे से व्याख्या करने का समय आ गया है. दलबदल मामले में बॉम्बे हाईकोर्ट की गोवा पीठ का फैसला अब केवल तकनीकी महत्व का है क्योंकि निवर्तमान गोवा विधानसभा का कार्यकाल 18 मार्च को समाप्त हो रहा है. सभी 40 सीटों के लिए मतदान पहले ही 10 फरवरी को हो चुका है. अब चुनाव परिणामों की प्रतीक्षा है जो 10 मार्च को आएंगे.
अदालती फैसले से कांग्रेस अंसतुष्ट
अदालती फैसले से असंतुष्ट दोनों दलों में से एक, कांग्रेस पार्टी ने दलबदलू विधायकों को अयोग्य ठहराने की मांग वाली याचिका हाई कोर्ट द्वारा खारिज करने के फैसले को चुनौती देने का निर्णय लिया है. कांग्रेस ने सराहनीय कदम उठाया है, खासतौर पर यह जानते हुए कि मौजूदा कानूनों में अभी भी बहुत सारी खामियां हैं जिनका बड़ी बेशर्मी से गलत इस्तेमाल किया जाता है. कांग्रेस के 15 शेष विधायकों में से कुल 10 और क्षेत्रीय महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी (एमजीपी) के तीन में से दो विधायक तत्कालीन मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर की मृत्यु के कुछ दिनों के भीतर ही 10 जुलाई, 2019 को राज्य की सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गए थे. पर्रिकर के बाद प्रमोद सावंत सीएम बने और उन्होंने भाजपा को पूर्ण बहुमत में ला दिया.
विधानसभा अध्यक्ष के आदेश का आधार
दोनों दलों ने दलबदलू विधायकों को विधानसभा की सदस्यता के लिए अयोग्य करार देने के लिए स्पीकर राजेश पाटनेकर के पास औपचारिक तौर पर आवेदन किया था. हमेशा की तरह पाटनेकर ने सुनवाई पूरी करने के लिए अपना समय लिया और 26 फरवरी, 2021 को अपना फैसला सुरक्षित रख लिया. उन्होंने फैसला सुनाने के लिए 29 अप्रैल की तारीख तय की. हालांकि उन्हें तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एसए बोबडे के आदेश के तहत इसे 20 अप्रैल से आगे बढ़ाना पड़ा. 23 अप्रैल को सेवानिवृत्त हो रहे जस्टिस बोबडे नहीं चाहते थे कि मामला नई पीठ के पास जाए.
पाटनेकर ने अपने फैसले में कहा कि चूंकि कांग्रेस पार्टी और एमजीपी दोनों के दो-तिहाई विधायकों ने दलबदल किए इसलिए इसे भाजपा के साथ उनके विधायी दलों का विलय माना जाएगा और दलबदल कानून के तहत वे अयोग्य नहीं ठहराए जा सकते. इसके बाद कांग्रेस और एमजीपी दोनों पार्टियों ने विधानसभा स्पीकर के फैसले के खिलाफ हाई कोर्ट में अपील दायर की.
हाई कोर्ट ने क्यों कहा, मामला नहीं बनता है
जस्टिस मनीष पिताले और जस्टिस आरएन लड्ढा की पीठ ने फैसला सुनाया, “याचिकाकर्ता का यह तर्क देना उचित नहीं हैं कि उक्त अनुसूची के पैराग्राफ 4 के उप-पैराग्राफ (1) और (2) परस्पर जुड़े हुए हैं, एक-दूसरे पर निर्भर हैं और मूल राजनीतिक दल के विलय के लिए सहमत होने वाले विधायक दल के कम से कम दो-तिहाई सदस्यों की आवश्यकता एक अतिरिक्त शर्त है.” हाई कोर्ट ने अपने गुरुवार के आदेश में कहा, “यह विशिष्ट और स्वतंत्र क्षेत्र एक ऐसी स्थिति पर विचार करता है जहां मूल राजनीतिक दल का कोई विलय नहीं हुआ है, फिर भी, यह माना जाना चाहिए कि ऐसा विलय हुआ है, यदि और केवल यदि, कम से कम दो-तिहाई सदस्य विधायक दल इस तरह के विलय के लिए सहमत है. एक बार उपरोक्त शर्त पूरी हो जाने के बाद डीमिंग फिक्शन (deeming fiction) लागू होता है जो एक सदन के सदस्य को अयोग्यता से बचा रहा है.”
कांग्रेस ने उठाया राजनीतिक दलों के अस्तित्व का सवाल
गोवा कांग्रेस अध्यक्ष और मामले के एक याचिकाकर्ता गिरीश चोडनकर ने शुक्रवार को कहा कि उनकी पार्टी इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देगी क्योंकि इससे राजनीतिक दलों के अस्तित्व को खतरा है. उनके अनुसार, हाई कोर्ट के फैसले से राजनीति के उस ब्रांड को बढ़ावा मिलेगा जिसका अभ्यास प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी कर रही है जहां वे धन-बल के उपयोग से जनादेश को पलट सकते हैं.
गोवा के अलावा, मणिपुर एक और राज्य था जहां भाजपा ने 2017 में चुनी गई त्रिशंकु विधानसभा में कांग्रेस पार्टी के बाद दूसरे स्थान पर रहने के बावजूद सरकार बनाने में कामयाबी हासिल की थी. इन दोनों राज्यों में बहुमत हासिल करने के लिए भाजपा ने कांग्रेस विधायकों को पिछले दरवाजे से साधा. दरअसल दो-तिहाई का प्रावधान दलबदल को वैध बनाता है और दलबदलू विधायकों को अयोग्य होने से बचाता है. हाई कोर्ट में दायर मामला दलबदल विरोधी कानून की धारा 4 (2) की व्याख्या के इर्द-गिर्द सीमित था. इसमें कहा गया है कि “एक सदन के किसी सदस्य के मूल राजनीतिक दल का विलय तब माना जाएगा, जब, और केवल तभी, जब संबंधित विधायक दल के कम से कम दो-तिहाई सदस्य इस तरह के विलय के लिए सहमत हों.”
दलबदल कानून की नए सिरे से व्याख्या जरुरी
निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा दलबदल के बढ़ते मामलों से निपटने के लिए संविधान के 52वें संशोधन की दसवीं अनुसूची 1985 में संसद द्वारा पारित की गई थी. इसके बाद बड़े राज्यों में दलबदल को सफलतापूर्वक रोक जा सका क्योंकि दो-तिहाई निर्वाचित सदस्यों को पाला बदलने के लिए मैनेज करना मुश्किल हो गया था. हालांकि गोवा, मणिपुर जैसे छोटे राज्यों और उत्तर-पूर्व के अन्य राज्यों में इसका इस्तेमाल और दुरुपयोग होता रहा.
कांग्रेस पार्टी का स्टैंड सही है क्योंकि गोवा में दलबदल का फिर से दुरुपयोग देखा जा सकता है क्योंकि राज्य में खंडित जनादेश आने के आसार हैं. अनुमान के मुताबिक, 40 सदस्यीय विधानसभा में भाजपा आधे रास्ते को किसी तरह पार कर सकती है या इससे कम पर भी सिमट सकती है. दिलचस्प बात यह है कि कांग्रेस पार्टी को तब तक कोई समस्या नहीं थी जब तक उसने इस कानूनी खामी का इस्तेमाल किया. उसके लिए समस्या तब शुरू हुई जब भाजपा 2014 में केंद्र में सत्ता में आई और दलबदल विरोधी कानून के मौजूदा प्रावधानों का फायदा उठाकर जनादेश में हेरफेर करना शुरू कर दिया. सुप्रीम कोर्ट द्वारा दलबदल विरोधी कानून की धारा 4(2) की विस्तृत और गहन व्याख्या दलबदल को असंभव बनाने के लिए अपरिहार्य और अनिवार्य दोनों हो गई है ताकि जनादेश का सम्मान किया जा सके.