नई दिल्ली 23 जनवरी (वेदांत समाचार)। ऊंची से ऊंची दुकान का महंगे से महंगा पकवान भी मसालों की अनियंत्रित मात्रा डालने से बेस्वाद हो जाता है और मुंह में कड़वाहट का रस घोल देता है। फिर आप यह सोचकर तो उसे नहीं निगलते कि चलो खा लेते हैं, क्योंकि बहुत पैसा खर्च किया है या इस दुकान का मालिक कोई ‘वेटरन खानसामा’ है। खाना तभी निगला जा सकता है, जब सभी मसाले संतुलित मात्रा में डाले जाएं।
हिंदी सिनेमा के वेटरन फिल्ममेकर सुभाष घई की पहली ओटीटी रिलीज 36 फार्महाउस बिगड़ी हुई रेसिपी की बेहतरीन मिसाल है। इस फिल्म में मसालों की बेतरतीब छौंक ने सिनेमाई स्वाद इस कदर बिगाड़ा है कि फिल्म देखने के बाद मन विचलित हो जाता है। ऐसा लगता है कि फिल्म निर्देशक के काबू में ही नहीं थी। कोई कुछ भी करता हुआ दिखता है। संजय मिश्रा जैसा बेहतरीन कलाकार अपने आपे में नजर नहीं आता तो विजय राज जैसे उम्दा एक्टर अंतिरंजतना के शिकार लगते हैं।
36 फार्महाउस कहने को तो कॉमेडी-थ्रिलर है, मगर इसे देखते हुए ना हंसी आती है और ना किसी थ्रिल का एहसास होता है। जहन में यह सवाल जरूर आता है, आखिर घई साहब ने किस ‘कर्ज’ को उतारने के लिए यह फिल्म बनाने की जहमत उठायी! हालांकि, जिस तरह की कहानी और पृष्ठभूमि चुनी गयी है, उसमें दिखाने और करने के लिए बहुत सम्भावनाएं थीं।
कहानी मुख्य रूप से एक अमीर महिला पद्मिनी राज सिंह (माधुरी भाटिया) के बेटों की जायदाद के लिए आपसी रंजिश पर आधारित है। बीमार रहने वाली उम्रदराज पद्मिनी मुंबई के बाहरी इलाके में स्थित 36 फार्महाउस नाम के आलीशान बंगले में अपने सबसे बड़े बेटे रौनक सिंह (विजय राज) के साथ रहती है। इस बंगले के साथ 300 करोड़ का फार्महाउस भी है। पद्मिनी ने अपनी सारी जायदाद सबसे बड़े बेटे रौनक सिंह के नाम कर दी है। रौनक के दो छोटे भाई गजेंद्र (राहुल सिंह) और वीरेंद्र हैं। गजेंद्र थोड़ा बदमाश किस्म का है, वहीं वीरेंद्र सीधा है, मगर उसकी पत्नी मिथिका (फ्लोरा सैनी) चालाक है। ये दोनों जायदाद में अपना हिस्सा चाहते हैं। वहीं एक मर्डर मिस्ट्री भी है।
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