मुंबई : मैं जट यमला पगला दीवाना… ये गाना तो याद होगा. फिल्म थी- प्रतिज्ञा. साल था- सन् 1975. मोहम्मद रफी की आवाज में गाये गए इस गाने पर हेमा मालिनी के अपोजिट धर्मेंद्र की अदायगी आज भी लोगों को लुभाती है. जट कुछ नहीं जानता, उसे केवल प्यार करना आता है- ओ मैनू प्यार कर दी है … इसी गाने की अगली पंक्ति है.यह रोमांटिसिज्म का दौर था. लेकिन अब फिल्मी पर्दे पर हैंडपंप उखाड़ने वाले और अपने ढाई किलो के हाथ से दुश्मनों के बीच हड़कंप मचाने वाले सनी देओल जाट बनकर आ रहे हैं. जाट फिल्म के ट्रेलर ने एक बार फिर पर्दे पर खून खराबा के संकेत दे दिये हैं. कहावत है- जब जाट खड़ी करे खाट, लगाए सबकी बाट. सनी देओल इसके लिए जाने भी जाते हैं. नो इफ एंड बट, ओनली जट– उनका डायलॉग मशहूर है.
सनी देओल की जाट ने उन फिल्मों की याद दिला दी है, जिसके नाम जातियों पर रखे गए हैं. फिल्मों में जाति, मजहब कभी कोई मुद्दा नहीं रहा. फिल्मों की कहानियों ने हमेशा जाति, धर्म से ऊपर उठकर पूरी सोसायटी के लिए प्रेम और भाईचारा के संदेश दिये हैं. हमारी फिल्मों ने हमेशा एक ऐसा यूटोपिया गढ़ा जहां जातिभेद की नफरत से अलग समाज को तरजीह दी गई. लेकिन हाल के कुछ सालों के भीतर फिल्मों के टाइटल अब जातिसूचक भी होने लगे हैं. यह राजनीति और समाज में जातिवाद के प्रभाव से अलग नहीं. ध्यान दीजिए, सड़कों पर चलती गाड़ियों के पीछे आजकल जातिसूचक शब्द धड़ल्ले से दिख रहे हैं. गाड़ी चालक अपनी कार के पीछे पूरे स्वाभिमान के साथ एक ब्रांड की तरह अपनी-अपनी जाति का नाम चस्पां करके रखता है- जाट, गुर्जर, राजपूत, ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य आदि.
पठान दे जो जुबान, उस पे मर मिट जाए
सनी देओल की जाट से दो साल पहले साल 2023 में शाहरुख खान की फिल्म आई थी- पठान. यह फिल्म मुझे तो लूट लिया… गाने पर दीपिका पादुकोण की पोषाक को लेकर विवादों में रही लेकिन पठान को पर्दे पर एक जाति विशेष को गौरवांवित करते हुए पेश किया गया था. पठान अपनी प्रकृति से रक्षक, आक्रामक और पराक्रमी माने गए हैं. दक्षिण एशिया में खुद को पख्तून कहते हैं. पठान अफगानिस्तान और उत्तर-पश्चिमी पाकिस्तान की एक विशेष जाति का नाम है. फिल्म में शाहरुख खान जब पठान बनते हैं तो आक्रोश, फर्ज और युद्ध को जीते हैं. फिल्म का गाना भी था- झूमे जो पठान, मेरी जान, महफिल ही लुट जाएं… दे दे जो जुबान, मेरी जान, उस पे मर मिट जाए… इस प्रकार फिल्म पठान जाति के गौरव को प्रस्तुत करती है.
सन् 1982 में आई थी धर्मेंद्र की राजपूत
पर्दे पर पठान की इस शान की चर्चा के क्रम में मुझे धर्मेंद्र, राजेश खन्ना, विनोद खन्ना और हेमा मालिनी की फिल्म राजपूत की याद आ गई. यह फिल्म सन् 1982 में आई थी. बॉक्स ऑफिस पर सुपरहिट भी हुई थी. इस फिल्म को विजय आनंद ने डायरेक्ट किया था. इस फिल्म के कथानक में आजादी के बाद जमींदारी उन्मूलन से पैदा हुए हालात को दिखाया गया था कि कैसे एक राजपूत सामंती खानदान का राजपाट खत्म कर दिया जाता है और उसके बाद संपत्ति बचाने से लेकर उसके बंटवारे तक में परिवार में कैसा संघर्ष शुरू हो जाता है. कोई बंदूक उठाकर डाकू बन जाता है तो कोई कानून का रखवाला.
पदमावत में भी राजपूताना शान का बखान
तलवार, भाले के कौशल प्रदर्शनों से यह फिल्म इतिहास में बनी राजा-महाराजा वाली अनेक कहानियों की तरह ही एक बार फिर राजपूत समाज की आन, बान और शान को पेश करती है. लेकिन इसके फिल्मांकन में कहीं भी जातीयता की दंभ भरने वाली वह गैरजरूरी गर्वानुभूति नहीं दिखाई गई थी जो संजय लीला भंसाली की फिल्म पदमावत (2018) में देखने को मिली थी. राजपूत की कहानी का लक्ष्य मोहब्बत और मिलन था. वहीं पदमावत में सड़कों पर उमड़े विरोध प्रदर्शनों का दवाब भी था. फिल्म में राजा रतन सिंह के किरदार में शाहिद कपूर के संवाद में बार-बार राजपूत शब्द बोला गया था. रिलीज से पहले वह फिल्म राजपूताना शान के लिए खतरा मानी गई थी लेकिन रिलीज के बाद राजपुताना गौरव का बखान करने वाली फिल्म कहलाई.
खाप और शूद्र: द राइजिंग जैसी फिल्म भी आई
सिनेमा के पर्दे पर जाति आधारित फिल्मों की फेरहिस्त में साल 2011 की खाप या 2012 की फिल्म शूद्र:द राइजिंग को नहीं भूल सकते. खाप का निर्देशन अजय सिन्हा ने किया था. इसकी कहानी झूठी शान के लिए अपनी ही संतान की हत्या पर आधारित थी. इसे ऑनर किलिंग शब्द दिया गया था. याद कीजिए उन सालों में हरियाणा से ऐसी बहुत सी खबरें आती थीं. यह फिल्म उन्हीं खबरों के आलोक में बनी थी. वहीं शूद्र : द राइजिंग का निर्देशन संजीव जायसवाल ने किया था. यह फिल्म प्राचीन भारत में जाति व्यवस्था और उसमें दलितों की स्थिति के बारे में थी. इसी तरह साल 2021 में एक फिल्म आई- जय भीम. इस फिल्म में भी जातिवादी व्यवस्था पर चोट किया गया था.
इतिहास में कम ही बनी जाति नाम पर फिल्म
फिल्मों की कहानियों में समाज में व्याप्त जाति भेद को आजादी से पहले से दिखाया जाता रहा है. अछूत कन्या, दुनिया न माने जैसी गंभीर पुरानी फिल्मों की परंपरा से बाहर निकलें तो बिमल रॉय की सुजाता, बंदिनी, सत्यजित राय की सद्गति, श्याम बेनेगल की अंकुर, प्रकाश झा की दामुल, आरक्षण, गोविंद निहलानी की आक्रोश, गौतम घोष की पार, नीरज घायवन की मसान और अजीब दास्तां: गिल्ली पुच्ची या फिर अनुभव सिन्हा की आर्टिकल 15- इन जैसी कई फिल्मों में मजदूर-जमींदार के संघर्ष या फिर सवर्ण-दलित का संघर्ष शामिल था लेकिन तब भी ना तो फिल्मों के टाइटल जातियों पर रख गये और ना ही किसी भी जाति का गैर जरूरी बखान किया गया.