दिल्ली के एम्स में अब रेयर जेनेटिक बीमारियों की भी जांच हो सकेगी. एम्स के डॉक्टरों ने पांच साल तक शोध करने के बाद इस जांच की विधि को विकसित किया है. इस जांच के लिए किडनी सिस्ट, अंधेपन और हड्डियों की बनावट में हुई गड़बड़ी का भी आसानी से पता चल सकेगा. जिसके बाद मरीज का इलाज बेहद आसान हो जाएगा.
जांच के इस तरीके को 200 बच्चों पर आजमाया गया था. जिनमें से 137 बच्चों में इस जांच के जरिए सटीक बीमारी का पता लगाया जा सका. विदेशों में भी यह जांच होती है, लेकिन जांच का सफलता का प्रतिशत महज 30 ही है और जांच भी महंगी है.
रेयर डिजीज की भी होगी पहचान
एम्स के पीडियाट्रिक विभाग के प्रोफेसर काना राम जाट और डॉक्टर सुभाष चंद्र यादव की टीम ने शोध के बाद ट्रांसमिशन इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोपी (टीईएम) जांच की विधि को तैयार किया है. इस जांच के जरिए मरीज की बारीक से बारीक कोशिकाओं भी एकदम साफ तौर पर देखा जा सकता है.
इस तकनीक के जरिए बच्चों के साथ ही वयस्कों में होने वाली रेयर डिजीज का भी पता लगाया जा सकता है और उसका सटीक इलाज किया जा सकता है. खासतौर पर बच्चों में होने वाली जन्मजात बीमारी प्राइमरी सिलिअरी डिस्काइनेसिया (पीसीडी) की पहचान भी हो सकेगी. यह बीमारी सांस लेने से जुड़ी एक गंभीर और अक्सर पहचान में न आने वाली बीमारी है.
पांच साल पहले शुरू हुआ शोध
डॉ. सुभाष के मुताबिक, जांच के इस मैथड के लिए पांच साल पहले शोध शुरु किया गया था. डॉक्टर कानाराम जाट के अनुसार प्राइमरी सिलिअरी डिस्काइनेसिया (पीसीडी) से पीड़ित बच्चे 20 सासल की आयु तक पहुंचने के दौरान जान गंवा देते हैं. इस बीमारी की सटीक पहचान को लेकर यह शोध शुरू किया गया था.
टीईएम विधि से 200 बच्चों की जांच की गई, जिनमें 137 में बीमारी की पुष्टि हुई और उनका सटीक इलाज किया जा सका. इस विधि से किडनी सिस्ट, अंधापन, दिमागी विकास में कमी, स्क्रीन संबंधित बीमारी, बांझपन समेत अन्य कई बीमारियों की सटीक जांच हो सकेगी. एम्स के डॉक्टरों का यह शोध हाल ही में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के मेडिकल जर्नल माइक्रोस्कोपी एंड माइक्रो एनालिसिस में भी प्रकाशित हुआ है.
विदेश में जांच है महंगी और असफल
डॉ. सुभाष के अनुसार, विदेश में भी इस जांच को किया जाता है, लेकिन उनका तरीका अलग है और शुल्क भी बहुत ज्यादा है. विदेश में इस जांच के लिए 70 हजार से एक लाख भारतीय रुपए शुल्क लिया जाता है. जबकि जांच की सफलता का प्रतिशत महज 30 है. यानी जांच करवाने वाले 70 प्रतिशत मरीजों में सटीक बीमारी का पता ही नहीं चल पाता. जबकि एम्स में यह जांच मरीजों के लिए निशुल्क रखी गई है और यहां जांच की सफलता का प्रतिशत भी 70 से ज्यादा है.