सरकारी नौकरियों में सीमा से अधिक आरक्षण क्या वोटरों को लुभा सकेगा

सस्ते अनाज और सस्ती बिजली के अलावा सरकारी नौकरियों में दिए जाने वाला आरक्षण (Reservation) भी अब वोटर को लुभाने का एक बड़ा उपक्रम माना जा रहा है. मंडल आयोग की सिफारिशों के आधार पर लागू किए गए ओबीसी आरक्षण के बाद की राजनीति में इसे हर राज्य में देखा गया. कई राज्य सुप्रीम कोर्ट द्वारा इंदिरा साहनी (Indra Sawhney Case) मामले में तय की गई आरक्षण की पचास प्रतिशत की सीमा को पार कर चुके हैं. कोर्ट में भी इस तरह के मामले विचाराधीन हैं. मध्यप्रदेश भी उन राज्यों की सूची में आ गया है जो कि सरकारी नौकरियों में पचास प्रतिशत से अधिक आरक्षण दे रहा है. इसमें आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग को दिए जाने वाला दस प्रतिशत आरक्षण भी शामिल है. हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने पदोन्नति में आरक्षण (Reservation in promotion) से जुड़े मामले में परिणामात्मक डेटा संकलन पर खास जोर दिया है. डेटा संग्रहण की जिम्मेदारी राज्यों की है. राज्यों को ही यह देखना है उच्च पदों पर आरक्षित वर्ग का प्रतिनिधित्व पर्याप्त है अथवा नहीं? आरक्षण का मसला प्रतिनिधित्व से ही जुड़ा हुआ है. संविधान में अनुसूचित जाति और जनजाति वर्ग के लिए विभिन्न स्तरों पर आरक्षण की व्यवस्था प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के उद्देश्य से ही की गई थी.

पदोन्नति में आरक्षण

प्रारंभिक तौर पर आरक्षण दस साल के लिए दिया था. लेकिन, हर दस साल बाद इसे अगले दस साल के लिए बढ़ाया जाता रहा है. डेढ़ दशक पहले तक पदोन्नति में आरक्षण दिए जाने की कोई व्यवस्था नहीं थी. राजनीतिक दलों ने आरक्षित वर्ग के वोटर को लुभाने के लिए पदोन्नति में आरक्षण देना भी शुरू कर दिया पदोन्नति में आरक्षण के मामले में नागराज और जनरैल सिंह की याचिकाओं में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के कारण राजनीतिक दलों के हाथ से एक महत्वपूर्ण मुद्दा निकलता दिखाई दे रहा है. अधिकांश राज्य सरकारें पदोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था को जारी रखने के पक्ष में हैं. संविधान का अनुच्छेद 16 (ए) का हवाला दिया जा रहा है. इसी अनुच्छेद के आधार पर सुप्रीम कोर्ट आरक्षित वर्ग के प्रतिनिधित्व के डेटा पर जोर दे रहा है.

मध्यप्रदेश में सरकारी नौकरियों में 73 प्रतिशत आरक्षण

सरकारी नौकरियों में दिए जाने वाले आरक्षण की सीमा रेखा बताने वाले सुप्रीम कोर्ट के कई फैसले हैं. इनमें इंदिरा साहनी का मामले का उदाहरण हमेशा दिया जाता है. इंदिरा साहनी की याचिका पर ही सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण की कुल सीमा पचास प्रतिशत तय की है. लेकिन,राजनीतिक दल और उनकी सरकार इस सीमा रेखा को लांघने के लिए हर बार नए उपाय करते दिखाई देते हैं. मध्यप्रदेश में ओबीसी आरक्षण की सीमा को चौदह प्रतिशत से बढ़ाकर सत्ताईस प्रतिशत किया जाना इसका उदाहरण है.


राज्य में अनुसूचित जाति और जन जाति वर्ग को आबादी के मान से कुल छत्तीस प्रतिशत आरक्षण दिया गया है. बीस प्रतिशत आबादी जनजाति वर्ग की है. सोलह प्रतिशत अनुसूचित जाति वर्ग है. वर्ष 1994 में जब ओबीसी को आरक्षण देने की बात आई तो तत्कालीन दिग्विजय सिंह सरकार ने इंदिरा साहनी मामले को ध्यान में रखते हुए चौदह प्रतिशत आरक्षण देने का फैसला लिया. लेकिन,वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले कमलनाथ के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने सरकारी नौकरियों में ओबीसी का आरक्षण चौदह से बढ़ाकर सत्ताईस प्रतिशत कर दिया. सरकार के इस निर्णय के खिलाफ मध्यप्रदेश हाईकोर्ट में कई याचिकाएं दायर हुईं. कोर्ट ने बढ़े हुए अतिरिक्त आरक्षण का क्रियान्वयन रोक दिया. याचिकाएं अभी भी हाईकोर्ट में विचाराधीन हैं.


राज्य के महाधिवक्ता ने सरकार को यह सलाह दी है कि कोर्ट की रोक उन्हीं पर लागू होती है,जिन में आरक्षण को चुनौती दी गई है. अन्य विभागों में भर्ती ओबीसी के बढ़ाए गए आरक्षण के अनुसार की जा सकती है. सरकार ने इस आधार पर आरक्षण का नया रोस्टर भी जारी कर दिया है. जिसमें कुल आरक्षण 73 प्रतिशत हो गया है. अर्थात सरकारी नौकरी 100 में 73 लोग आरक्षण की श्रेणी से नियुक्त किए जाएंगे. इसके अतिरिक्त विकलांगों के लिए भी सरकारी पदों पर आरक्षण लागू है. यह आरक्षण मानवीय संवेदनाओं से जुड़ा हुआ है.

कमलनाथ को नहीं मिला था आरक्षण की सीमा बढ़ाने का लाभ

कमलनाथ सरकार ने मध्यप्रदेश में ओबीसी आरक्षण की सीमा आबादी को आधार मानकर बढ़ाई. कमलनाथ लोकसभा चुनाव में जिस राजनीतिक लाभ की उम्मीद ओबीसी वोट से कर रहे थे,वह उन्हें नहीं मिला. कांग्रेस 29 में से सिर्फ एक लोकसभा की सीट छिंदवाड़ा ही मामूली अंतर से जीत सकी थी. जाहिर है कि ओबीसी वोटर इस तथ्य से वाकिफ था कि चुनाव में लुभाने के लिए ही आरक्षण की सीमा बढ़ाई गई है. आरक्षण का मामला ऐसा है, जिसे देने के बाद वापस लेना मुश्किल होता है. कमलनाथ के बाद राज्य में शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में भाजपा की सरकार आई. सरकार ने हाईकोर्ट के समक्ष दावा किया है कि राज्य में पचास प्रतिशत से अधिक की आबादी ओबीसी है. सरकार ने ओबीसी आरक्षण 8 मार्च 2019 से प्रभावी किया है. जबकि आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग को आरक्षण 2 जुलाई 2019 से लागू हुआ है. आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग को दस प्रतिशत आरक्षण दिया गया है. इस श्रेणी में वो लोग आते हैं,जिनकी सालाना आमदनी आठ लाख रुपए से कम है. लगातार आरक्षण का प्रतिशत बढ़ने से इस वर्ग में असंतोष दिखाई देने लगा था. जिसे दस प्रतिशत का आरक्षण देकर काबू करने की कोशिश की गई है.

ओबीसी आरक्षण बनेगा चुनावी मुद्दा ?

राज्य में अगले साल विधानसभा के चुनाव होना है. मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ओबीसी आरक्षण के मुद्दे पर चुनाव में जाने की तैयारी कर रहे हैं. इससे पहले स्थानीय निकायों के चुनाव का सामना भी उन्हें करना पड़ सकता है. निकाय चुनाव में ओबीसी के सत्ताईस प्रतिशत आरक्षण को सुप्रीम कोर्ट खारिज कर चुका है. सरकार ने किसी तरह चुनाव टाल कर तात्कालिक नुकसान से अपने आपको बचा लिया है. लेकिन,आने वाले दिनों में आरक्षण का जिन्न एक बार फिर निकलकर बाहर आ सकता है?

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